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नियमसार
(अनुदुम् ) निर्वृतेन्द्रियलौल्यानां तत्त्वलोलुपचेतसाम् । सुन्दरानन्दनिष्यन्दं जायते तत्त्वमुत्तमम् ।।२३५।।
( अनुष्टुभ् )
अत्यपूर्व निजात्मोत्थभावना जातशर्म
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यतन्ते यतयो ये ते जीवन्मुक्ता हि नापरे ।। २३६॥
( वसंततिलका )
अद्वन्द्व निष्ठमनघं परमात्मतत्त्वं संभावयामि तदहं पुनरेकमेकम् । कि त मे फलमिहात्यपदार्थ साथै मुक्तिस्पृहस्य भवशर्मणि निःस्पृहस्य || २३७॥
( २३५ ) श्लोकार्थ -- जिन्होंने इन्द्रियों की लोलुपता को समाप्त कर दिया है, और जिनका चिन्त तत्त्वों में बोलती है ऐसे परमसाधु के सुन्दर आनन्द को झराने वाला उत तत्त्व प्रगट होता है ।
( २३६) श्लोकार्थ -- जो यतिगण अतिशय और अपूर्व अपनी आत्मा से उत्पन्न हुई भावना से होने वाले सुख के लिये यत्न करते है. वे ही जीवन्मुक्त हैं, किंतु अन्य नहीं हैं ।
( २३७) श्लोकार्थ - अद्व में लीन - रागद्वेषादि द्वंद्व से रहित स्वरूप में स्थित, निर्दोष, केवल एक रूप से उस एक परमात्म तत्त्व की मैं पुनः पुनः सम्यक् प्रकार से भावना करता हूं । मुक्ति की स्पृहा से सहित तथा भव सुख में निःस्पृह ऐसे मुझे इस लोक में उन अन्य पदार्थों के समुदाय से क्या फल है ? अर्थात् कुछ भी नहीं है ।
विशेषार्थ -- इस परम भक्ति अधिकार में गाथा १३४ से लेकर १४० तक पंच परमेष्ठी की और उनके रत्नत्रय गुणों की भक्ति का उपदेश है । व्यवहार भक्ति, स्तुति, नमस्कार, गुणगान आदि रूप है और निश्चयभक्ति वीतराग निर्विकल्प ध्यान