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नियममार
तृप्तसर्वात्मप्रदेशा जाताः, ततो यूयं महाजनाः स्फुटितभव्यत्वगुणास्तां स्वात्मान वीतरागसुखप्रदां योगर्भाक्त कुरुतेति ।
( शार्दूलविक्रीडित )
नाभेयादिजिनेश्वरान् गुणगुरून् त्रैलोक्य पुण्योत्करान् श्रीदेवेन्द्र किरीटकोटिविलसन्माणिक्यमालावितान् ।
पौलोमीप्रभृतिप्रसिद्धदिविजाधीशांगना संहतेः शक्र ेणोद्भव भोगहास विभलान् श्रीकीर्तिनाथान् स्तुचे || २३१||
से सहित हे महापुरुषों ! तुम लोग अपनी आत्मा के लिए प्रयोजनभूत ऐसे वीतराग सुख को प्रदान करने वाली ऐसी योग भक्ति को करो |
[as टीकाकार मुनिराज इस अधिकार को संकुचित करते हुए सात ल द्वारा योग भक्ति का माहात्म्य प्रकट करते हैं-]
( २३१ ) श्लोकार्थ - जो गुणों से गुरु हैं, त्रैलोक्य के पुण्य की राशि हैं। देवेन्द्रों के मुकुटों के अग्रभाग में सुशोभित हुए माणिक्य रत्नों की मालाओं से अति शची आदि प्रसिद्ध इंद्राणियों के समूह से सहित ऐसे इंद्र के द्वारा हुए विमल भोग हास से सहित अर्थात् नृत्य, गान आनन्द से युक्त हैं तथा श्री अंतरंग एवं बहिरंग और कीर्ति के स्वामी हैं ऐसे वृषभादि जिनेश्वरों की मैं स्तुति करता हूं ।
भावार्थ - चौबीस तीर्थंकर अपने अनंत गुणों से अतिशय भारी होने त्रिभुवन के गुरु कहलाते हैं, तीनों लोकों में जितना भी पुण्य है उस सभी पुंज स्वरूप हैं. देवेंद्रगण उनको अपने रत्न खचित मुकुटों को झुकाकर नमस् करते हैं, सौधर्म इन्द्र सभी इन्द्र और इंद्राणियों के साथ भगवान के जन्म कल्पत आदि में महान् महोत्सव करते हैं । वे तीर्थंकर तीनों जगत् के भव्य जीवों स्तुत्य हैं ।