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पा-भक्ति अधिकार
उसहाविजिणवरिंदा, एवं काऊरण जोगवरभत्ति । रिणबुदिसुहमावण्णा, तम्हा धरु जोगवरत्ति ॥१४०॥
वषभादिजिनवरेन्द्रा एवं कृत्वा योगवरभक्तिम् । निर्वृतिसुखमापनास्तस्माद्धारय योगवरभक्तिम् ।।१४।।
थी बृपभादि जिनेन्द्र तीर्थकर आदिक मब । एम विध मे ही योग वर भनी करके निन । नात किया निवाए गुग्नमय अविचन पद को।
अनः गे हे माशु ! निश्चय योग भक्ति को ।। १४०।। भवत्याधिकारोपसंहारोपन्यासोयम् । अस्मिन् भारते वर्षे पुरा किल श्रीनायादिश्रीवर्द्ध मानचरमाः चतुविशतितीर्थकरपरमदेवाः सर्वज्ञवीतरागाः त्रिभुवनवतिकीतयो महादेवाधिदेवाः परमेश्वराः सर्वे एवमुक्तप्रकार स्वात्मसंबन्धिनी शुद्धनिश्चययोगवरभक्ति कृत्वा परमनिर्वाणवधूटिकापीवरस्तनभर गाढोपगूढनिभरानन्दपरमसुधारसपुरपार
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गाथा १४० अन्वयार्थ-[वृषभादिजिनवरेन्द्राः] वृषभादि जिनवरेन्द्र [एवं] उमप्रकार से [योगवरभक्ति] योग की उत्तम भक्ति [कृत्वा] करके [ निर्वृत्ति सुखं ] निर्वाण सुख को [आपन्नाः] प्राप्त हुए हैं, [तस्मात्] इसलिए [योगवरभक्तिधारय] तुम योग की जनम भक्ति को धारण करो ।
टीका-भक्ति अधिकार के उपमंहार का यह कथन है ।
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इस भारत वर्ष में पहले जो श्री नाभि पुत्र-वृषभदेव से लेकर अंतिम श्री वर्द्धमान देव पर्यंत चौबीस तीर्थकर परम देव सर्वज्ञ वीतराग त्रिलोक में व्याप्त कीति से युक्त महादेवाधिदेव परमेश्वर हुए हैं, वे सभी इस उपर्युक्त प्रकार से अपनी आत्मा से सम्बन्ध रखने वाली ऐसी शुद्ध निश्चय योग की उत्तम भक्ति को करके अति पुष्ट स्तन वाली परम निर्वाण वधू के गाद आलिंगन से सर्व आत्मा के प्रदेशों में अतिशय आनन्दरूप परमसुधारस के पूर में परितृप्त हो चुके हैं। इसलिए प्रगटित भव्यत्व गुण
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