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र-भक्ति अधिकार
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विवरीयाभिणिवेसं, परिचत्ता जोण्ह'कहियतच्चेसु । जो जुजवि अप्पाणं, णियभावो सो हवे जोगो ॥१३॥
विपरीताभिनिवेशं परित्यज्य जैनकथिततत्त्वेषु । यो युनक्ति आत्मानं निजभावः स भवेद्योगः ।।१३६॥
जो विपरीत अभिप्राय, मन वच तन से तजते । जिन भाषित तत्त्वार्थ में निज को रत चाग्ने ।। उनका वह निज भाव, निश्चय योग कहाव ।
जो मुनि धारे योग वे ही निज सुख पावें ।। १३६ ।। इह हि निखिलगुणधरगणधरदेवप्रभृतिजिनमुनिनाथकथिततत्वेष बिपरीताभिनिवेशविजितात्मभाव एव निश्चयपरमयोग इत्युक्तः । अपरसमयतीर्थनाथाभिहिते विपरोते पदार्थे ह्यभिनिवेशो दुराग्रह एव विपरीताभिनिवेशः अमु परित्यज्य जैनकथित
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गाथा १३६ अन्वयार्थ--[ यः ] जो [ विपरीताभिनिवेशं ] विपरीत अभिप्राय को [ परित्यक्त्वा ] छोड़कर [ जैन कथित तत्वेषु ] जिनेंद्र देव द्वारा कथित तत्त्वों में । [आत्मानं युतक्ति] आत्मा को लगाता है । [ सः निजभावः ] उसका बह निजभाव । स्वरूप [योगः भवेत् ] योग होता है ।
टीका-अखिन गुगगी के धारक गणधर देव आदि जिनमुनिनाथों के द्वारा कहे गये तत्त्वों में विपरीत आग्रह मे रहित आत्मभाव ही निश्चय परम योग है, ऐसा यहां । पर कहा है।
अन्य संप्रदाय के तीर्थ कर्ताओं के द्वारा कहे गये विपरीत पदार्थ में जो अभिनिवेशदुराग्रह है वही विपरीत अभिनिवेश है। इसको छोड़कर जिनेन्द्र देव द्वारा