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नियमसार सर्वविकल्पाभावे आत्मानं यस्तु युक्ति साधुः । स योगभक्तियुक्तः इतरस्य च कथंभवेद्योगः ।।१३।।
सर्व विकल्प अभाव, में जो साधु सतत हो । करते हैं सेलीन, निज आत्मा को सच हो । वे ही साधु योग भक्ती युक्त कहावें ।
अन्य साधु के योग कहो कहां बन पावे ? ||१३८।। अत्रापि पूर्वसूत्रवग्निश्ययोगभक्तिस्वरूपमुक्तम् । अत्यपूर्वनिरुपरागरत्नत्रयात्मकनिचिद्विलासलक्षरपनिविकल्पपरभसमाधिना निखिलमोहरागद्वषादिविविधविकल्पाभावे परमसमरसीभावेन निःशेषतोऽन्तर्मुखनिजकारणसमयसारस्वरूपमत्यासन्नभव्यजीवः सदा युनक्त्यैव, तस्य खलु निश्चययोगभक्तिर्नान्येषाम् इति ।
(अनुष्टुभ् ) भेदाभावे सतीयं स्याद्योगभक्तिरनुत्तमा । तयात्मलब्धिरूपा सा मुक्तिर्भवति योगिनाम् ॥२२६।।
-- . .- ... ........- - - - . भक्ति मे युक्त होता है, [ इतरस्य च ] तथा अन्य साधु के [ योगः कथं भवेत् ] योग किस प्रकार से होगा?
टीका-यहां पर भी पूर्व सूत्र के समान निश्चय योग भक्ति का स्वरूप कहा। है-अतिशय अपूर्व राग रहित रत्नत्रय स्वरूप निज चैतन्य विलास लक्षण ऐसी निविकल्प परम समाधि के द्वारा समस्त मोह, राग, द्वेष आदि विविध विकल्पों का अभाव हो जाने पर परम समरसी भाव के साथ सम्पूर्णतया अंतर्मुख निजकारण समयसार स्वरूप आत्मा को जो अत्यासन्न भव्य जीव सदा ही युक्त करता है-जोड़ता है, उसके निश्चितरूप से निश्चय योग भक्ति होती है, किन्तु अन्य साधुओं के नहीं होती है ।
[अब टीकाकार मुनिराज उसीको स्पष्ट करते हुए कहते हैं-]
श्लोकार्थ-भेद का अभाव हो जाने पर यह सर्वोत्तम योग भक्ति होती है। उस भक्ति के द्वारा योगियों को वह आत्मा के स्वरूप को उपलब्धिरूप मुक्ति होती है ।। २२९ ।।
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