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तथा चोक्तम्
तथा हि
परम-भक्ति अधिकार
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( अनुष्टुभ् ) "आत्मप्रयत्नसापेक्षा विशिष्टा या मनोगतिः । तस्या ब्रह्मणि संयोगो योग इत्यभिधीयते ॥ "
( अनुष्टुभ् ) आत्मानमात्मनात्मायं युनक्त्येव निरन्तरम् । स योगभक्तियुक्तः स्यानिश्चयेन मुनीश्वरः ॥ २२८ ॥ सव्वविपाभावे, अप्पाणं जो दु जुजदे साहू | सो जोगभत्तिजुत्तो, इवरस्स य किह हवे जोगो ॥ १३८ ॥
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इसीप्रकार से अन्यत्र भी कहा है
" श्लोकार्थ- - आत्मा के प्रयत्न में सापेक्ष ऐसी जो विशेष मनोगति है उसका - ब्रह्मस्वरूप आत्मा में संयोग ही 'योग' इस नाम से कहा जाता है ।"
उसी प्रकार से [ टीकाकार मुनिराज योग भक्ति को स्पष्ट करते हुए कह [रहे हैं- ]
श्लोकार्थ - जो यह आत्मा आत्मा को निरन्तर आत्मा के साथ ही जोड़ता . निश्चय से वह मुनीश्वर योग भक्ति से युक्त होता है ।। २२८ ।।
भावार्थ - ध्यान में तत्पर हुए तथा ग्रीष्मकाल में पर्वत की चोटी पर, वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे एवं शिशिर ऋतु में खुले स्थान में या नदी के किनारे ध्यान करने आले त्रिकाल योग में तत्पर हुए साधु योगी कहलाते हैं उनके गुणों का स्तवन करते मन से वचन से और काय से भक्ति करना ही व्यवहार से योग भक्ति है और आत्मा में ही अपनी आत्मा को स्थिर करना निश्चय योग भक्ति है ।
गाथा १३८
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अन्वयार्थ – [ यः साधुः तु ] जो साधु [ सर्वविकल्पाभावे ] सर्व विकल्पों के भाव में [आत्मानं युनक्ति ] आत्मा को लगाता है [ सः योगभक्ति युक्तः ] वह योग