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परम-ममाधि अधिकार
[ ३५५ नियतनिश्चयान्तर्गताचारे स्वरूपेऽविचलस्थितिरूपे व्यवहारप्रपंचितपंचाचारे पंचमगतिहेतुभूते किंचनभावप्रपंचपरिहोणे सकलदुराचारनिवृत्तिकारणे परमतपश्चरणे च परमगुरुप्रसादासादितनिरंजननिजकारणपरमात्मा सदा सभिहित इति केवलिनां शासने तस्य परवष्यपराङ मुखस्य परमवोतरागसम्यग्दृष्टेर्वीतरागचारित्रमान: सानावितस्तं स्थायि भवतीति ।
(मंदाक्रांता) आत्मा नित्यं तपसि नियमे संयमे सच्चरित्रे तिष्टत्युच्चैः परमयमिनःशुद्धष्टेमनश्चेत् ।
-. - _ - -- ...-- - - - - .. - वजित ऐसे अभ्यन्तररूप मंयम में मर्यादित काल के आचरण मात्र ऐसे नियम में अपने स्वरूप में अविचल स्थितिमा परमब्रह्म स्वरूप चिन्मय में नियत ऐसे निश्चय स्वरूप अन्तर्गत आचार में पंचमगति के लिये कारणभूत ऐसे व्यवहार के विस्तार में सहित पंचाचार में, किंचन भावरूप [ यह किंचित् भी मेरा है ] प्रपंच से रहित और सफल अशुभ आचार के अभाव में कारणभूत ऐसे परम तपश्चरण में परमगुरु के प्रमाद में प्राप्त हुआ ऐसा निरंजनम्प निजकारण परमात्मा सदा निकट में स्थित है । इसप्रकार से केवलि भगवान के शासन में परद्रव्य से पराङ मुख और वीतराग चारित्र को प्राप्त हुए ऐसे परम वीतराग सम्यग्दृष्टि के सामायिक व्रत स्थायी होता है।
भावार्थ-जो विगुप्ति से सहित महासाधु हैं और भविष्य में जिनेन्द्र के पद को प्राप्त करने वाले से भावी जिन हैं, उनकी निजकारण परमात्मा स्वरूप आत्मा सदा ही बाह्य और अन्यन्तरकाप संयम, नियम, चारित्र तथा तपश्चरण में स्थित रहती है, नब उन्हीं वीतराग चारित्र से युक्त निश्चय सम्यग्दृष्टि के परमसमता भावरूप सामायिक व्रत स्थायी रूप रहता है।
[ अब टीकाकार श्री मुनिराज उन्हीं मुनिराज का गुणगान करते हुए कहते हैं-]
(२१२) श्लोकार्थ--शुद्ध सम्यग्दृष्टि ऐसे परमसंयमी की आत्मा नित्य ही तप में, नियम में, संयम में और सम्यक्चारित्र में अतिशयरूप से स्थित है, यदि ऐसा