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परम-समाधि अधिकार
[ ३५६ (मार्या) इति जिनशासनसिद्ध सामायिकव्रतमणुवतं भवति । परस्पति मुसिनित्य समयमासरावास्यम् ।।२१४॥ जो दु पुण्णं च पावं च, भावं वज्जेदि णिच्चसा । तस्स सामाइगं ठाई, इदि केलिसासणे ॥१३०॥
यस्तु पुण्यं च पापं च भावं वर्जयति नित्यशः । तस्य सामायिक स्थायि इति केबलिशासने ॥१३०।। संसार सुखप्रद पुण्य भावों, से सतत मुख मोड़ते । वह दुःखदायी पाप भावों, को सदा जो छोड़ते ।। शुद्धोपयोगी उन मुनी के स्थायि सामायिक रहे। धोकेवली के विमल शासन, में इसी विध से कहें ।।१३।।
- . . - .-- .।। (२१४) श्लोकार्थ-जो मुनिराज आर्त और रौद्र नाम के दोनों ही ध्यानों को छोड़ देते हैं, उनके इसप्रकार से जिनशासन में प्रसिद्ध, अणुव्रतरूप सामायिक व्रत
भावार्थ-आर्तध्यान और रौद्रध्यान से रहित साधु का जो सामायिक व्रत है अणुव्रत है, क्योंकि पूर्णतया मोहनीय के अभाव से होने वाला समताभावरूप मायिक ही स्थायी होता है । इस अपेक्षा से हो वीतरागता के पूर्व कदाचित् समताव है कदाचित् नहीं है अतएव बह महाव्रत न कहलाकर अणुवत ही कहलाता है समझना।
गाथा १३०
___अन्वयार्थ-[यः त] जो, [ पुण्य च पापं च भावं ] पुण्यरूप और पापरूप को, [ नित्यशः वर्जयति ] नित्य ही छोड़ देता है, [ तस्य सामायिक स्थायि ] के सामायिक स्थायी है, [ इति केवलिशासने ] ऐसा केवली भगवान के शासन में