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नियमसार शुभाशुभपरिणामसमुपजनितसुकृतदुरितकर्मसंन्यासविधानाख्यानमेतत् । बाह्याभ्यंतरपरित्यागलक्षणलक्षितानां परमजिनयोगीश्वराणां चरणनलिनक्षालनसंवाहनादियावृत्यकरणजनितशुभपरिणतिविशेषसमुपाजितं पुण्यकर्म, हिसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहपरि । णामसंजातशुभकर्म, यः सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणिः संसृतिपुरंधिकाविलासपि । भ्रमजन्मभूमिस्थानं तत्कर्मद्वयमिति त्यजति, तस्य नित्यं केवलिमतसिद्ध सामायिकवत । भवतीति ।
( मंदाक्रांता) त्यक्त्वा सर्व सुकृतदुरितं संसृतेमूलभूतं नित्यानंदं व्रजति सहजं शुद्धचैतन्यरूपम् । तस्मिन् सद्द्दा विहति सदा शुद्धजीवास्तिकाये पश्चादुच्चः त्रिभुवनजनैरचितः सन् जिनःस्यात् ।।२१५।।
.- -- टोका-शुभ और अशुभ परिणाम से उत्पन्न होने वाले पुण्य और पापरूप कमों के त्याग के विधान का यह कथन है ।
बाह्य और अभ्यन्तर के परित्यागरूप लक्षण से लक्षित, परम जिन योगीश्वरों। के चरण कमलों के प्रक्षालन, संवाहन (दबाने) आदि रूप वैयावृत्ति को करने से उत्पन्न । हुई शुभ परिणति विशेष उपार्जित किया गया पुण्य कर्म है और हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील तथा परिग्रहरूप परिणामों से उत्पन्न हुआ अशुभ कर्म है । सहज बैगग्यरूपी । महल के शिखर का शिखामणि जो-महामुनिराज संसाररूपी स्त्री के विलास विभ्रम को उत्पन्न करने के लिये जन्मभुमि के स्थान स्वरूप ऐसे इन दोनों (पुण्य-पापरूप) कर्मों को छोड़ देते हैं उनके नित्य ही केवली भगवान के मत में सिद्ध यह सामायिक व्रत ( संयम ) होता है ।
अब टीकाकार मुनिराज पुण्यपाप से रहित, शुद्ध-स्वरूप ऐसी तृतीय भूमिका को प्राप्त करने की प्रेरणा देते हुए तीन श्लोक कहते हैं-]
(२१५) श्लोकार्थ-सम्यग्दृष्टि जीव संसार के लिये मूल कारणभूत ऐसें । सभी पुण्य और पाप को छोड़कर नित्य आनन्दरूप, सहज ऐसे शुद्ध चतन्यस्वरूप को . प्राप्त कर लेता है और सदा उस शुद्ध जीवास्तिकाय में विहार करता है । पश्चात् ।।
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