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नियमसार
सिद्धाः सुसिद्धिरमणीरमणीयववत्रपंकेरुहोरुमकरंदमध्रुव्रताः स्युः ॥ २२६ ॥
मोक्खपहे अप्पाणं, ठविकरण य कुरणदि रिगब्बुदी भत्ती । तेरा दु जीवो पावइ, असहाय गुरगं रियप्पा ॥१३६॥
मोक्षपये आत्मानं संस्थाप्य च करोति निर्वृतेर्भक्तिम् । तेन तु जीवः प्राप्नोत्यसहायगुणं निजात्मानम् ॥ १३६॥
जो आत्मा को मोक्ष, पथ में स्थापित करके । अपने में ही आप निवृति भक्ती करते ।
इसमें ही वे जीव, निज आत्मा को पाते। पर सहाय से शून्य गुणमय परिणम जाते ।। १३६ ।।
रूपी रमणी के रमणीय मुत्र कमल की श्रेष्ठ मकरंद - पराग के लिये भ्रमर सहा हैं ।। २२६ ॥
भावार्थ सिद्धों के स्थान पर विद्यावर या ऋद्धिधारी मुनि अथवा देवतागण आदि भी नहीं पहुंच सकते हैं । इसलिये ये सब उन सिद्धों को परोक्ष में ही भक्ति करते हैं । अन्यत्र अतदेव के समवसरण में तथा अकृत्रिम जिनालय आदि में सर्वत्र देवतागण प्रत्यक्ष से भक्ति करते हैं और मनुष्य भी अहंतों के समवसरण में तथा ढाई द्वीप के चैत्यालयों में प्रत्यक्ष भक्ति करते हैं । अन्यत्र चैत्यालयों की परोक्ष से भक्ति करते हैं ।
गाथा १३६
अन्वयार्थ – [ मोक्ष पथे श्रात्मानं संस्थाप्य ] मोक्षमार्ग में अपनी आत्मा को सम्यक् प्रकार से स्थापित करके [ निर्वृत्तेः ] निर्वाण की [ भक्ति करोति ] भक्ति करता है, [तेन तु जीवः ] उससे यह जीव [ असहायगुणं निजात्मानं ] असहाय - स्वाभाविक गुण स्वरूप अपनी आत्मा को [ प्राप्नोति ] प्राप्त कर लेता है ।