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परम-समाधि अधिकार
(शिखरिणी) स्वतःसिद्ध ज्ञानं दुरघसुकृतारण्यदहनं महामोहच्वान्तप्रबलतरतेजोमयमिदम् । विनिर्मुक्त मूलं निरुपधिमहानंदसुखद यजाम्येतन्नित्यं भवपरिभवध्वंसनिपुरगम् ।।२१६॥
(शिखरिणी) अयं जोवो जीवत्यघकुलवशात् संसृतिवधूधवत्वं संप्राप्य स्मरजनितसौख्याकुलमतिः । क्वचिद् भव्यत्वेन ब्रजति तरसा नि तिसुखं तदेकं संत्यक्त्वा पुनरपि स सिद्धो न चलति ।।२१७॥
अतिशयरूप से तीन लोक के जनों अचित होता हुआ जिनेन्द्र भगवान हो जाता है ।
भावार्थ-जो जीव पुण्य-पाप से रहित ऐमे शुद्धोपयोग में लीन होत हैं वे जगत्पूज्य जिनदेव हो जाते हैं ।
(२१६) श्लोकार्थ-यह स्वत: सिद्ध ज्ञान दुष्ट पाप और पुण्यरूप वन को जलाने के लिये अग्निरूप है. महा मोहरूपी अंधकार के नाश हेतु प्रबलतर तेजोमय है, निर्वाण का मूल है, उपाधि रहित महान आनन्द और सुख को देने वाला है तथा भव के तिरस्कार को ध्वंस करने में निपुण है ऐसे इस ज्ञान को मैं नित्य पूजता हूं।
(२१७) श्लोकार्थ---यह जीव पाप समूह (दोष समूह) के वश होने से संसाररूपी वधू का पति होकर काम मे जनित सुख से आकुल बुद्धि वाला होता हुआ जी रहा है । कभी भव्यत्व भाव के द्वारा शीघ्र ही निर्वाण सुख को प्राप्त कर लेता है तब उस एक सुख को छोड़ कर पुनः कभी भी बह सिद्ध चलायमान नहीं होता है ।
भावार्थ-भव्यत्व के विपाक से कर्मों के निमित्त से यह जीव संसार में दुःख उठाता है पुन: यही जीव जब मुक्ति को प्राप्त कर लेता है तो पुनः इस संसार में कभी भी अवतार नहीं लेता है।
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