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परम-भक्ति अधिकार
अथ संप्रति हि भक्त्यधिकार उच्यते ।
सम्मत्तणाणचरणे, जो भत्ति कुरण्इ सावगो समरणो। तस्स दुरिणबुदिभत्ती, होदि ति जिणेहि पण्पत्तं ॥१३४॥
सम्यक्त्वज्ञानचरणेषु यो भक्ति करोति श्रावकः श्रमणः । तस्य तु निवृत्तिभक्तिर्भवतीति जिनैः प्रज्ञप्तम् ।।१३४॥
रोनाछंद जो श्रावक या साधु, मन में प्रति रुचि धर के । समकित ज्ञान चरित्र में नित भक्ती करते ।। उनके ही निर्वाण भक्ती होती सच में । भक्ती का यह रूप बरणा श्री जिनवर ने ।।१३४।।
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अब परम भक्ति अधिकार कहा जाता है ।
गाथा १३४ अन्वयार्थ-[यः श्रावकः श्रमणः] जो श्रावक अथवा श्रमण [ सम्यक्त्वज्ञान परणेषु ] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में [भक्ति करोति] भक्ति करता
[तस्य तु] उसके [निर्वृत्ति भक्ति भवति] निर्वाण की भक्ति होती है । [इति जिनः जिप्तं] ऐसा जिनों ने कहा है ।