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परम-समाधि अधिकार
(मालिनी) इदमिदमघसेनावैजयन्ती हरेत्तां स्फुटितसहजतेजःपुंजदूरोकृतांहः । प्रबलतरतमस्तोमं सदा शुद्धशुद्ध जयति जगति नित्यं चिच्चमत्कारमात्रम् ॥२१०॥
(पृथ्वी) जयत्यनघमात्मतत्त्वमिदमस्तसंसारक महामुनिगणाधिनाथहृदयारविन्दस्थितम् । विमुक्तभवकारणं स्फुटितशुद्धमेकान्ततः सवा निजमहिम्नि लीनमपि सदृशां गोचरम् ॥२११॥
भावार्थ-संसार में सभी सुख और दुःख पुण्य और पाप के ही फल हैं, किंतु वास्नब में शुद्भनिश्चयनय से मेरी आत्मा में पुण्य और पाप का लेश नहीं है बह ता पूर्ण शुद्ध है । इसीलिये इस शुद्धात्मा का संसार से कोई सम्बन्ध नहीं है। ऐसी शुद्ध भावना से परिणत हुए शुद्धोपयोगी महामुनियों की यहां स्तुति की गई है।
(२१०) श्लोकार्थ--जिसने प्रगट हुए सहज तेज पूज से प्रबलतर अंधकार समूह को दुर कर दिया है, जो सदा शुद्ध-शुद्ध है, नित्य है और चैतन्य चमत्कार मात्र है । यह तेज जगत् में जयशील हो रहा है और यही सहज तेज पापरूपी सेना की वजा को हरण करने वाला है !
भावार्थ-चिच्चमत्कार मात्र सहजतेज पाप शत्रु की सेना को जीतकर विजयी बन जाता है ।
(२११) श्लोकार्य-यह निर्दोष आत्म तत्त्व जयवंत हो रहा है जो कि संसार का अस्त कर चुका है, महामुनियों के गण के अधिनाथ ऐसे गणधर देव के हृदय कमल में विराजमान है, भव के कारणों से विमुक्त है, प्रकट रूप से शुद्ध है और एकान्त से सदा अपनी महिमा में लीन होते हुए भी सम्यग्दृष्टियों का गोचर है ।