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नियनसार राकानिशीथिनीनाथः अप्रशस्तवचनरचनापरिमुक्तोऽपि प्रतिक्रमणसूत्रविषयवचनरचनां मुक्त्वा संसारलतामूलकंदानां निखिलमोहरागद्वेषभावानां निवारणं कृत्वाऽखण्डानंदमयं
- . - - - हए भी प्रतिक्रमण सूत्र की विषम-विविध वचनरचना को छोड़कर संसार लता के मूलकंदभूत संपूर्ण मोह, राग, दोष भावों का निवारण करके अखंड आनंदमय निजकारण परमात्मा का ध्यान करते हैं, उनके जो कि परमतत्त्व का सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठान के सन्मुख हुये हैं ऐसे साधु के निश्चितरूप मे संपूर्ण वचन के विषयभन व्यापारों से रहित निश्चय प्रतिक्रमण होता है।
विशेषार्थवीतराग निविकल्प समाधिरूप अवस्था से परिणत हुये शुद्धोपयोगी महासाधुओं के पूर्णतया अंतर्जल्प भी रुक जाते हैं, उस समय संपूर्ण बचन का व्यापार समाप्त हो जाता है. ऐसे निश्चय रत्नत्रय से परिणत एकाग्र अवस्था में निश्चयप्रतिक्रमण घटित होना है।
अपने बना में लगे हा अतीन काल के दोषों को दूर करना प्रतिक्रमण कहलाता है। इसमें प्रतिक्रमण के दण्डक सूत्रों का उच्चारण करते हुए भावपूर्वक 'मिच्छा मे दुवकर्ड' मग दुाकृत मिथ्या होवे ऐसा बार बार कहते हुए होता है। इन प्रतिक्रमण के सात' भेद हैं—देव सिक, रात्रिक, ऐपिथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक और उनमार्थ । दिवम में लगे हुए दोपों को दूर करने के लिये सायंकाल में प्रतिक्रमण करना देवमिक है । रात्रि में लगे हुए दोषों को दूर करने के लिये गांव के अंत में प्रतिक्रमण करना गत्रिक है । आहार को जाते समय या देववंदना, गुरुवंदना आदि के लिये अथवा मल मूत्रादि विसर्जन के लिये जाते-आते समय जो जीद बाधा हुई हो उसमे निवृत्त होने के लिये प्रतिक्रमण करना ऐर्यापथिक है । पंद्रह दिन में किया गया पाभिवा. चार महिनों में किया गया चातुर्मासिक और आषाढ़ मुद्री । पणिमा को किया गया प्रतिक्रमण सांवत्सरिक कहलाता है तथा सल्लेम्वना ग्रहण करने के बाद अंतकाल में जो संपूर्ण दोषों का विशोधन किया जाता है वह उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है । इनमें रो दैबसिक, रात्रिक और ऐपिथिक ये तीन प्रतिक्रमण तो साधु को प्रतिदिन ही करने पड़ते हैं । प्रमाद आदि के निमित्त से हुये दोषों की शुद्धि प्रतिक्रमण
१. मूलाचार पृ० ३१७ 1