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नियमसार
( वसन्ततिलका ) "चित्तस्थमप्यनवबुद्धच हरेण जाडघात्
ध्या बहिः किमपि दग्धमनंगबुद्धथा । घोरामवाप स हि तेन कृतामवस्था क्रोधोदयाद्भवति कस्य न कार्यहानिः ।।"
( वसंततिलका) "चक्रं विहाय निजदक्षिणबाहुसंस्थं
यत्प्रावजन्ननु तदैव स तेन मुच्येत् । - - - -
"श्लोकार्थ-'महादव ने अपने चित्त में स्थिन भी कामदेव को नहीं जाना। जड़ता से कट होकर बाहर में कामदेव को बुद्धि में विमी को जला दिया, किन्तु र कामश्व में की गई घोर-दुरवस्था को वह प्राप्त हुआ था गो ठीक है-क्रोध के उदय । किस के कार्य ही हानि नहीं होनी है ?"
भावार्थ-जब महादेव तपस्या कर रहे थे तब पार्वती उन्हें प्रसन्न करने लिये कामदेव के माथ वहां पहुंची और नृत्यादि में उन्हें प्रसन्न करने का प्रयन्त कर लगी, इधर कामदेव ने भी वसन्त ऋतु का निर्माण कर उन पर पुष्प वाण छोड़नः । प्रारम्भ किया । तब महादेव ने क्रुद्ध होकर तीसरे नेत्र ग अग्नि को प्रगट करके कार दव को जला दिया ऐसी कथा प्रसिद्ध है।
इसी अभिप्राय से आचार्य ने कहा है कि सच्चा कामदेव तो उनके हृदय स्थित था जिसे उन्होंने जाना ही नहीं। इसीलिये पार्वती के साथ उनका विवाह जाने पर उनकी दुरवस्था हुई । यह सब अनर्थ एक क्रोध का कारण हुआ ।
"श्लोकार्थ-अपने दाहिनी भुजा पर स्थित ऐसे चक्र को छोड़कर बाहुन ने दीक्षा ले ली, वे उस तप से उसी समय मुक्त हो जाते किन्तु वे बाहुबलि चिरका तक क्लेश को प्राप्त हुए सो ठीक है-किचित् भी मान महान् हानि को करता है ।
१. प्रात्मानुशासन श्लोक० २१६ २. कुमारसम्भवम् ( कालिदास कवि कृत) ३. आत्मानु. श्लोक २१७ ।