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शुद्ध निश्चय - प्रायश्चित्त अधिकार
( मंदाक्रांता )
आत्मज्ञानाद्भवति यमिनामात्मलब्धिः क्रमेर ज्ञानज्योतिर्निहतकरणग्रामघोरान्धकारा ।
कर्मारण्योद्भवववशिलाजालकानामज प्रध्वंसेऽस्मिन् शमजलमयीमाशु धारा बमन्ती ।।१६६ ॥
( उपजाति )
प्रध्यात्मशास्त्रामृतवारिराशेयोद्धृता संयम रत्नमाला
बभूव या तत्त्वविदां सुकण्ठे सालंकृतिमं क्तिवधूधवानाम् ॥ १८७ ।।
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( १०६ ) श्लोकार्थ - जिसने ज्ञान ज्योति से इन्द्रियग्राम के घोर अन्धकार को नष्ट कर दिया है, जो कर्मरूपी वन में उत्पन्न हुई दावानल अग्नि की ज्वाला ममूह को बुझाने में शीघ्र ही शमजलमयी धारा को बरसाती हुई ऐसी आत्मा की उपलब्धि क्रम से संयमियों के आत्म ज्ञान में उत्पन्न होती है ।
भावार्थ- -- आत्मा के स्वरूप की प्राप्ति संयमी मुनियों को ही हो सकती है अन्य को नहीं और उन्हें भी आत्मज्ञान के बल से ही हो सकती है अन्यथा नहीं ।
( १८७ ) श्लोकार्थ - अध्यात्म शास्त्ररूपी अमृत समुद्र मे मैंने संयमरूपी रत्नमाला निकाली है, जो कि मुक्तिबधु के स्वामी ऐसे तत्त्ववेत्ताओं के सुकंट में अलंकाररूप होती है ।
भावार्थ - - समुद्र के मंथन से रत्न निकलते हैं वैसे ही श्री पद्मप्रभमलधारीदेव मुनिराज ने अध्यात्म शास्त्ररूपी अमृतमयी समुद्र का मंथन करके संयमरूपी रत्न निकाले हैं जो कि मुक्ति के प्राप्त करने वाले आत्मज्ञानियों के कंठ का हार बन जाते हैं अर्थात् अध्यात्म शास्त्र के अवलम्बनपूर्वक धारण किया गया संयम मुक्ति को प्राप्त करा देता है ।
सह