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शुद्धनिश्चय-प्रायश्चित अधिकार
[ ३३७ कायाई परदवे, थिरभावं परिहरत्तु अप्पारणं । तस्स हवे तणुसग्गं, जो झायइ णिम्विनप्पेण ॥१२१॥
कायादिपरद्रध्ये स्थिरभावं परिहत्यात्मानम् । तस्य भवेत्तनुत्सर्गो यो ध्यायति निर्विकल्पेन ॥१२१ ।
जो कायादिक पर द्रव्या में स्थिर भाव को तज । निर्विकमभावों से, आत्मा को ध्याते हैं मचि से ।। कायम जमा के होता ही महामुना हैं ।
निश्चय प्रायदिचत्त उन्हीं के, उनको सदा नमु – ।। १२ । निश्चयकायोत्सर्गस्वरूपाख्यानमेतत् । सादिसनिधनमूर्तविजातीयधिभावव्यंजनपर्यायात्मकः स्वभ्याकारः कायः। प्रादिशब्देन क्षेत्रवास्तुकनक रमणीप्रभृतयः । एतेषु सर्वेषु स्थिरभावं सनातनभावं परिहत्य नित्यरमणीयनिरंजननिजकारणपरमात्मानं व्यव
- - - - -- - - .. अर्थ-डे गिय ! नम शरीर की कुछ चेष्टा-क्रिया मत करो, कुछ मत बोलो, मन में कुछ चितवन भी मत करो जैसे बन वैसे एकदम स्थिर हो जाओ और आत्मा में ही लीन हो जावो, यही परमध्यान होता है ।
गाथा १२१ अन्वयार्थ - [कायादिपरद्रव्ये | काय आदि पर द्रव्य में, [स्थिरभावं] स्थिर भाब को, [ परिहृत्य ] छोड़ करके, [ यः ] जो, [ निर्विकल्पेन ] निविकल्परूप से, [आत्मानं ध्यायति ] आत्मा का ध्यान करता है, [ तस्य ] उस साधु के [ तनुत्सर्ग: भवेत् ] कायोत्सर्ग होता है ।
टोका-निश्चयकायोत्सर्ग के स्वरूप का यह कथन है। __ सादि-सान्त मूर्तिक विजातीय विभाव व्यंजन पर्यायस्वरूप जो अपना आकार है वह 'काय' कहलाती है । यहां आदि शब्द से क्षेत्र, मकान, स्वर्ण, स्त्री आदि को ग्रहण : करना चाहिये । इन सभी में स्थिर भाव-ये स्थायी हैं ऐसे भाव को तथा ये समीचीन हैं ऐसे भाव को छोड़कर नित्य ही रमणीय निरंजन निज कारण परमात्मा का व्यवहार