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परम-समाधि अधिकार
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अथ अखिलमोहरागद्वषादिपरभावविध्वंसहेतुभूतपरमसमाध्यधिकार उच्यते । वयणोच्चारणकिरियं, परिचत्ता वीयरायभावेण । जो झायदि अप्पारणं, परमसमाही हवे तस्स ॥१२२॥
वचनोच्चारणक्रिया परित्यज्य वीतरागभावेन । यो ध्यायत्यात्मानं परमसमाधिर्भवेत्तस्य ॥१२२।।
गीताछंद जो वचन उच्चारण क्रिया को सर्वथा ही त्यागते । बम वीतरागो भाव से निज आत्मा को घ्यावते ।। उनहों मुनी के कही परम समाधि-जो अब नहिं सनभ । उन शुक्ल ध्यानी साघु को कंवल्य की प्राप्ति सुलभ ।।१२२।।
अब समस्त मोह रागद्वेष आदि पर भावों के विध्वंस में कारणभूत ऐसे परम समाधि अधिकार को कहते हैं
गाथा १२२ अन्वयार्थ-[वचनोच्चारण कियां परित्यक्त्वा] वचन बोलने की क्रिया का परित्याग कर, [यः] जो, [वीतराग भावेन] वीतराग भाव से, [आत्मानं ध्यायति] आत्मा को ध्याता है, [तस्य उसके, [परम समाधिः भवेत्] परम समाधि होती है ।