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नियमसार विरवो' सव्वसावज्जे, तिगुत्तो पिहिदिदियो । तस्स सामाइगं ठाई, इदि केवलिसासणे ॥१२५॥
विरतः सर्वसावचे त्रिगुप्तः पिहितेन्द्रियः । तस्य सामायिक स्थायि इति केवलिशासने ॥१२५।। जो मुनि सरब सावध चर्या से विरत है नित्य हो । औलोग गुप्ता युक्त है और पांच इन्द्रिय के जयी ।। उनही मुनी के सर्वथा स्थायि सामायिक रहे ।
अरिहन शामन में कहा इसविध यही ऋषिगण कहें ॥१२५।। इह हि सकलसावधव्यापाररहितस्य त्रिगुप्तिगुप्तस्य सकलेन्द्रियव्यापारविमुखस्य | तस्य च मुनेः सामायिकं व्रतं स्थायीत्युक्तम् । अथात्रैकेन्द्रियादिप्राणिनिकुरंबक्लेशहेतुभूत । तसमस्तसावद्यव्यासंगविनिमुक्तः, प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तकायवाङ मनसां व्यापाराभावात् । त्रिगुप्ता, स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राभिधानपंचेन्द्रियाणां मुखस्तत्तद्योग्यविषयग्रहणाभा- 1
गाथा १२५ अन्वयार्थ-[ सर्व सावध विरतः ] जो सम्पूर्ण सावध योग में विरत । [त्रिगुप्तः] तीन गुप्ति से सहित, और [ पिहितेन्द्रियः ] इंद्रियों को संवत्त करने वाले । हैं, [तस्य] उनके [ स्थायिसामायिक ] स्थायी सामायिक है, [ इति केवलिशासने ] | ऐसा केवली भगवान के शासन में कहा है।
टीका-समस्त सावध व्यापार से रहित, तीन गुप्तियों से गुप्त और सम्पूर्ण । इन्द्रियों के व्यापार से विमुख ऐसे उन मुनि के सामायिक व्रत स्थावी है ऐसा यहां पर । कहा है।
जो यहां पर एकन्द्रिय आदि प्राणी समुदाय के लिये क्लेश के कारणभूत ऐसे समस्त पाप योग के व्यासंग से रहित हैं, प्रशस्त और अप्रशस्तरूप समस्त काय, वचन तथा मन सम्बन्धी व्यापार के अभाव से तीन गुप्ति से सहित हैं । स्पर्शन, रसना, प्राण, : चक्षु और श्रोत्र इन नामवाली पांच इंद्रियों के मुख से अर्थात् उन-उन के योग्य विषयों
१. विरदी (क) पाठा।