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परम-समाधि अधिकार
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तथा हि
(द्रतविलंबित) अनशनादिनपश्चरण: फलं समतया रहितस्य यतेन हि । तत इदं निजतत्वमनाकुलं भज मुने समताकुलमंदिरम् ।।२०२।।
[अब टीकाकार मुनिराज समतादेवी की नपामना के लिये प्रेरणा देते हुए कहते है
(२०२) श्लोकार्थ-समता से रहित यति को अनयन आदि तपश्चरणों के द्वाग निश्चितरूप से फल नहीं है। इसलिये, हे मुने ! ममता का कुल मंदिर ऐसे इस आकुलता रहित निज तत्व को तुम भजो ।
भावार्थ-यदि कोई साधु द्रव्यलिंगी है, श्रमण के सदश दिग्बना है किंतु भाव श्रमण नहीं है तथा समताभाव से भी रहित है तो घोराघोर तपश्चरणों के द्वारा भी उसको आत्ममिडिप फल नहीं मिलेगा । हां ! मंदकपाय के द्वारा बाह्य चारित्र से उमे नवग्रंचेयक तक, अहमिन्द्र के सुख तो मिल भी सकते हैं, किन्तु जो वास्तविक निर्वाण फल है, वह नहीं मिल सकता है । इसलिये यहां पर स्वयं भगवान कुदकुददेव ने या शि. समता-वीतराग भाव से रहित साधु के लिये काय क्लेशादि क्या कर सकते हैं ? इससे यह नहीं समझना कि ये काय क्लेशादि व्यर्थ हैं, किन्तु ऐसा समझना कि इतनी ऊंची जिन कल्पी चर्या के आचरण करने वालों को भी तथा अध्यात्म शास्त्र के अध्ययन करने वालों को भी द्रयन्निंगी अवस्था रह सकती है । तब यह मम्यक्त्व कितना सूक्ष्म है कि जिसे वे स्वयं ग्यारह अंग के पाठी होने पर भी नहीं जान पाते हैं, क्या वे आध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन नहीं करते हैं ? अवश्य करते हैं फिर भी वे भाव मिथ्यात्वी ही रह जाते हैं । निष्कर्ष यह निकलता है कि अपने सम्यक्त्व रूप श्रद्धान परिणाम को दृढ़ करते रहना चाहिये और जिनेन्द्र देव की आज्ञा के अनुकूल प्रवृत्ति करते हुए रागद्वेष को हटाकर समतादेवी की आराधना करते रहना चाहिए ।
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