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नियमसार यिना महोपवासेन या, सदाध्ययनपटुतया च, याविषयव्यापारनिवृत्तिलक्षणेन संततमः । नव्रतेन वा किमप्युपादेयं फलमस्ति केवलद्रव्यलिंगधारिणः श्रमणाभासस्येति ।
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तथा चोक्तम् अमृताशीत....
(मालिनी "गिरिगहनगुहाधारण्यशून्यप्रदेशस्थितिकरगनिरोधध्यानतीर्थोपसेवा । प्रपठनजपहोमब्रह्मणो नास्ति सिद्धिः
मृगय तदपरं त्वं भोः प्रकार गुरुभ्यः ॥" . --- - - - - - -..
- .. .- - . -- .. - - - साग को क्लेशदायी ऐसे महोपवास से तथा मदा अध्ययन की कुशलता से अथक वचनविषयक व्यापार के अभावरूप निरन्तर मौन व्रत में केवल द्रन्याल गधारी श्रमणा भास के लिये क्या कुछ भी उपादेयभूत फल है ? अर्थात् नहीं है ।
उसीप्रकार से 'अमृताशीति ग्रंथ में भी कहा है
"श्लोकार्थ-पर्वत की गहन गुफा आदि में अथवा वन के शून्य प्रदेश में रहना, इन्द्रियों का निरोध करना, ध्यान करना, तीर्थों की उपासना करना, पठन करना, जप और होम करना इत्यादि कार्यों से ब्रह्म स्वरूप आत्मा की सिद्धि नहीं हो सकती है, अतः भो भव्य ! तुम गुरुओं से उस अन्य ही प्रकार को हो ।
भावार्थ-इन ध्यान, अध्ययन आदि क्रिया कलापों से भी जिस आत्मतत्त्व की सिद्धि नहीं हो पाती है ऐसी जो कोई निर्विकल्प रूप वीतराग अवस्था है या मुख निश्चयसम्यक्त्व है उसे गुरुओं के प्रसाद से ही प्राप्त किया जा सकता है।
१. श्री योगीन्द्रदेवकृत अमृताशीति-श्लोक ५६ |