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परम-समाधि अधिकार
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वात् पिहितेन्द्रियः, तस्य खलु महामुमुक्षोः परमवीतरागसंयमिनः सामायिकं व्रतं शाश्वत् स्थायि भवतीति ।
( मंदाक्रांता )
इत्थं मुक्त्वा भवभयकरं सर्वसावद्यराशि
नीत्वा नाशं विकृतिमनिशं कायवाङ् मानसानाम् । अन्तः शुद्धया परमकलया साकमात्मानमेकं बुद्ध्वा जन्तुः स्थिरशममयं शुद्धशीलं प्रयाति ॥ २०३॥ जो समोसव्वभूदेसु, थावरेसु तसेसु वा । तस्स सामागं ठाई के
|| १२६॥
के ग्रहण का अभाव होने से संकुचित इन्द्रिय वाले हैं - इन्द्रियों का निरोध करने वाले हैं, उन परमवीतराग संबंधी, महामुमुक्षु साधु के निश्चितरूप से सामायिक व्रत शास्वतस्थायी होता है ।
[ टीकाकार मुनिराज सामायिक चारित्र का महत्व बतलाते हुए कहते हैं- 1
( २०३ ) श्लोकार्थ - - इसप्रकार भवभयकारी संपूर्ण पापयोग के समूह को छोड़कर काय, बचन, मन की विकृति को हमेशा नष्ट करके अन्तरंग की शुद्धिरूप परमकला मे सहित ऐसी एक आत्मा को जान करके जीव स्थिर शममय ( कषायों की पूर्ण उपशमतारूप) ऐसे शुद्ध चारित्र को प्राप्त कर लेता है ।
भावार्थ --- 'सर्वसावद्ययोगाद्द्द्विरतोऽस्मि मैं सम्पूर्ण पाप सहित योग से विरक्त हूं इसे ही सामायिक चारित्र कहते हैं । दीक्षा के समय यह एक अभेदरूप चारित्र होता है पुनः अभेद से भेद में आने के बाद छेदोपस्थापना रूप अट्ठाईस मूलगुणों के भेदरूप चारित्र होता है । यहां पर इस अभेद चारित्र का ही स्वरूप और महत्व बतलाया है ।
गाथा १२६
अन्वयार्थ -- [ यः स्थावरेषु वा श्रसेषु ] जो स्थावर और उस जीवों के प्रति,