________________
परम समाधि अधिकार
[३४५ कि काहदि वरणवासो, कायकिलेसो विचित्त उववासो। अज्झयरणमौरणपहुदी, समदारहियस्स समएस्स ॥१२४॥
कि करिष्यति बनवासः कायक्लेशो विचित्रोपवासः । अध्ययनमौनप्रभृतयः समतारहितस्य श्रमणस्य ।।१२४॥ जिनके न समता भाव है वे श्रमग यदि बन में रह । अति कर कायकल श नप उपवास भी बहुबिध गहें ।। बह शास्त्र का अध्य गन मौनादिक बहन भी निन करें।
ये सब क्रियाय क्या करेगी ? साम्य विन नहि शिव बरें ।।१२४।। अत्र समतामन्तरेण द्रालगधारिणः श्रमणाभासिनः किमपि परलोककारणं नास्तीत्युक्तम् । सकलकर्मकलंककविनिमुक्तमहानंदहेतुभूतपरमसमताभावेन विना कान्तारवासादासेन प्रावृषि वृक्षमूले स्थित्या च ग्रीष्मेऽतितीवकरकरसंतप्तपर्वताग्रगावनिषण्णतया वा हेमन्ते च रात्रि मध्ये झाशांबरयाकलेन र, नालियन गरलेसादा
गाथा १२४
अन्वयार्थ— [ वनवासः ] बन में निवास, [ कायक्लेशः ] काय का क्लेश, [बिचित्रोपवासः ] अनेक विविध उपनाम नथा, [ अध्ययन मौन प्रभृतयः ] अध्ययन, मौन आदि कार्य, [ समता रहितस्य श्रमणस्य ] समता से रहिन श्रमण के लिए, [किंकरिष्यति] क्या करेंगे ?
टोका—समता के बिना द्रव्यलिंगधागे, श्रमणाभासी साधु के कुछ भी परलोक मुक्ति का कारण नहीं है, एसा यहां कहा है।
समस्त कर्मकलंकरूपी कोचड़ से रहित, महान आनन्द के लिये कारणभूत ऐसे परम समता भाव के बिना वनवास में रहने से, वर्षाऋतु में वृक्ष के तलभाग में स्थित होने से, ग्रीष्म ऋतु में अतितीव्र किरण वाले सूर्य की किरणों से तप्तायमान हुए पर्वत के अग्रशिखर पर स्थिर बैठने से अथवा शीत ऋतु में रात्रि के मध्य में दिगम्बर दशा में रहने से अर्थात् खुले मैदान में ध्यान करने से अथवा चर्म, अस्थिभूत