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शूद्धनिश्चय-प्रायश्चित्त अधिकार
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सहजपरमदृष्टया निष्ठितात्माघजातं भवभवपरितापः कल्पनाभिश्च मुक्तम् ।।१६६॥
(मालिनी) भवभवसुखमल्पं फल्पनामात्ररम्यं तबखिलमपि नित्यं संत्यजाम्यात्मशक्त्या । सहजपरमसौख्यं चिच्चमत्कारमात्रं स्फुटितनिविलासं सर्वदा चेतयेहम् ॥१७॥
( पृथ्वी) निजात्मगुणसंपदं मम हृदि स्फरन्तीमिमां समाधिविषयामही क्षणमहं न जाने पुरा। जगत्त्रितयवैभवप्रलयहेतुदुःकर्मणां प्रभुत्वगुणक्तितःखलु हतोस्मि हा संसृतौ ।।१९।।
गरमष्टि से कृतकृत्यरूप है और भव-भव के परितापों से तथा कल्पना जालों से मुक्त है।
(१९७) श्लोकार्थ—जो भव-भव का गुख है, वह अल्प-तुच्छ है, कल्पनामात्र से ही सुन्दर लगता है. उस समस्त श्री सुख का मैं आत्मशक्ति से सम्यक्प्रकार से नित्य त्याग करता हूं और जो चिच्चमत्कार मात्र है तथा प्रगटित निज विलासरूप है ऐम सहज परम सौख्य का मैं मदा ही अनुभव करता हूं।
(१९८) श्लोकार्थ-मेरे हृदय में स्फुरायमान होती हुई समाधि की विषयभूत-ध्यान के गोचर ऐसी इस अपनी आत्मा की गुणरूपी सम्पत्ति को पहले मैंने एक क्षण भी नहीं जाना । हाय ! बड़े दुःख की बात है कि तीनों जगत के वैभव का प्रलय करने में कारणभूत ऐसे दुष्ट कमों के प्रभुत्व गुण की शक्ति से मैं निश्चित हो संसार में मारा गया हूं।
भावार्थ-मेरी आत्मा में अनन्त गुणों का पुज विद्यमान है किंतु उसको न जान करके ही मैं इस कर्म शत्रु के द्वारा इस संसार में मारा जा रहा हूं, और अपनी संपत्ति से भी वंचित हो रहा हूं।