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नियमसार
हारक्रियाकांडाडम्बरविविधविकल्पकोलाहलविनिर्मुक्तसहजपरमयोगबलेन नित्यं ध्यायति यः सहजतपश्चरणक्षीरवारांराशिनिशीथिनी हृदयाधीश्वरः तस्य खलु सहजवैराग्यप्रासाद शिखरशिखाभरर्णोनिश्चयकायोत्सर्गो भवतीति ।
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( मंदाक्रांता )
कायोत्सर्गो भवति सततं निश्चयात्संयतानां
कायोद्भुत प्रबलतरतत्कर्ममुक्तः सकाशात् ।
बाचां जल्पप्रकरविरतेर्मानसानां निवृत्तेः स्वात्मध्यानादपि च नियतं स्वात्मनिष्ठापराणाम् ।।१६५ ।। ( मालिनी )
जयति सहजतेजःपुंज निर्मग्नभास्वत्सहजपरमतत्वं मुक्तमोहान्धकारम् ।
त्रियाकांड के आडम्बर के अनेकों विकल्परूप कोलाहल से रहित सहज योग
निर्विकल्प ध्यान के बल से जो नित्य ही ध्यान करते हैं, जो कि सहज तपश्चरणरूपी क्षीर सागर को वृद्धिंगत करने के लिये पूर्ण चन्द्रमा हैं, सहज वैराग्यरूपी महल के शिखर की शिखामणि स्वरूप उन मुनि के निश्चितरूप से निश्चय कायोत्सर्ग होता है।
[ अब टीकाकार मुनिराज निर्विकल्प ध्यान के लिये प्रेरणा देते हुए पांच श्लोकरूप कलशों द्वारा इस प्रायश्चित्त प्रकरण का उपसंहार कर रहे हैं--]
( १६५ ) श्लोकार्थ - निश्चय से कायोत्सर्ग सतत संयमी जनों को होता है। जो कि शरीर से उत्पन्न हुई प्रबलतर उन सम्बन्धी क्रियाओं के छूट जाने से वचनों के जन्मसमूह से विरक्त होने से, मन संबंधी विकल्पों के अभाव से तथा अपनी आत्मा के ध्यान से भी स्वात्मा में लीन हुए महासाधुओं के नियम से होता है ।
भावार्थ - मन, बचन और काय सम्बन्धी क्रियाओं के निरोध से निर्विकल्प
ध्यान में तत्पर हुए साधुओं को ही निश्चय कायोत्सर्ग होता है ।
( १६६) श्लोकार्थ - - - सहज तेज पुंज में सहज परम तत्त्व है वह जयशील हो रहा है जो कि
डूबा हुआ ऐसा जो स्फुरायमान मोहांधकार से रहित है सहज