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नियमसार
परमसमाधिस्वरूपाख्यानमेतत् । क्वचिव शुभवचनार्थ वचनप्रपंचांचितपरमवी तरागस वंजस्तवनादिकं कर्तव्यं परमजिनयोगीश्वरेणापि । परमार्थतः प्रशस्ता प्रशस्तसम स्तवाविषयव्यापारो न कर्तव्यः । अत एव वचनरचनां परित्यज्य सकलकर्मक संकर्षक विनिर्मु प्रध्वस्तभावकर्मात्मकपरमवीतरागभावेन त्रिकालनिरावरणनित्य शुद्ध कारणपर मात्मानं स्वात्माश्रयनिश्रवधर्मध्यानेन टंकोत्कीर्णज्ञायकंकस्वरूपनिरतपरम शुक्लध्याने च यः परमवीतरागतपश्चरणनिरतः निरुपरागसंयतः ध्यायति, तस्य खलु द्रव्यभावकर्मदः रूथिनी टाकस्य परमसमाधिर्भवतीति ।
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टीका - यह परम समाधि के स्वरूप का कथन है ।
कभी शुभ से बनने
के वार से मनोहर पीरागसर्वज्ञ देव का स्तवन आदि पर जिन योगीश्वर को भी करना चाहिये । परमार्थ से प्रशस्त और अप्रशस्त ऐसे समस्त वचन विषयक व्यापार को नहीं करना चाहिए, इसी हेतु मे वचन रचना का परित्याग करके सवल कर्म कलंकरूपी पंक से रहित तथा भाव कर्म के भी प्रध्वस्त हो जाने से होने वाले ऐसे परम वीतराग भाव के द्वारा तीनों कालों में आवरण रहित, नित्य, शुद्ध, कारण परमात्मा को जो परम वीतराग तपश्चरण में लीन हुआ वीतरागी संयमी साधु स्वामाश्रित निश्चय धर्मध्यान से और टंको की जायक एक स्वरूप में निरन ऐसे शुक्लध्यान से ध्याता है, द्रव्यकर्म और भावकर्मरूपी सेना को जीतने वाले ऐसे उस साधु के वास्तव में परम समाधि होती है ।
भावार्थ - यहां पर निश्चय धर्मध्यान और शुक्लध्यान में तत्पर वीतरागी, साधु का ही मुख्य रूप से ग्रहण है। यह निश्चय धर्मध्यान सातवे गुणस्थान के द्वितीय | भेद रूप सातिशय अप्रमत्त अवस्था में होता है, पुनः श्रंणी में आरोहण करने वाले के ही शुक्लध्यान होता है । मोहनीय कर्म के अभाव से पूर्ण वीतरागता होती हैं, जो कि ग्यारहवें गुणस्थान में ही विवक्षित है । इन उभय ध्यान से पूर्व छठे और स्वस्थान अप्रमत्तरूप सातवें गुणस्थान में सविकल्प धर्मध्यान होता है । छठे गुणस्थानवर्ती महामुनियों को भी टीकाकार ने प्रथम पंक्ति में वचनों द्वारा जिनेन्द्र गुण स्तवन आदि व्यवहार क्रियाओं में उपादेय बतलाया है, क्योंकि जब तक निर्विकल्प अवस्थारूप ध्यान प्राप्त न हो तब तक आवश्यक क्रियाओं की हानि नहीं करना चाहिये ।