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नियमसाद
( आर्या )
भवसंभवविष भूरुहफलमखिलं दुःखकारणं बुद्ध्वा । आत्मनि चैतन्यात्मनि संजातविशुद्धसौख्यमनुभुजे ॥१६६॥।
इति सुकविजनपयोजमित्र पंचेन्द्रियप्रस रवजितगात्रमात्र परिग्रह श्रीपद्मप्रभमन धारिदेवविरचितायां नियमसारख्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार अष्टमः श्रुलस्कन्धः ॥
( १६६ ) श्लोकार्थ - भव में उत्पन्न होने वाले विपवृक्ष के अखिल फल क दुःख का कारण जान करके मैं चैतन्यस्वरूप अपनी आत्मा में उत्पन्न होने वाले विशु सौख्य का अनुभव करता हूं ।
विशेषार्थ - - इस शुद्ध निश्चय प्रायश्चित्त अधिकार में प्रारम्भ में तो आचा ने व्रत समिति आदि के परिणाम को ही प्रायश्चित्त कहा है। वास्तव में जिसके द्वारा पाप का शोधन हो उसको प्रायश्चित कहते हैं, पुनः इसमें तपञ्चरण को प्रायश्चि बतलाते हुए अन्त में १२१ वीं गाथा में कायोत्सर्ग को भी ले लिया है। अधिकत प्रायदिवस में तपश्चरण और कायोत्सर्ग ही प्रधान रहते हैं । स्थल- स्थल पर टीकाकार ने यह स्पष्ट किया है कि जो व्यवहार क्रियाओं में पूर्ण निष्णात हैं उन्हीं साधु के यह निश्चय प्रायश्चित्त होता है । यदि वे व्यवहार में ही लगे रहते हैं तो उन्हें यह निश्व धर्म नहीं भी होता है किन्तु जब भी निश्चय प्रायश्चिन आदि साधु के होंगे तो वे व्यवहार क्रिया में पूर्ण निष्णात के ही होंगे न कि व्यवहार क्रिया से शून्य या शिथि के । इसलिए पहली सीढ़ी में व्यवहार में पूर्ण सावधान रहते हुए आगे निश्चय धर्म प्राप्त करने के लिये सतत प्रयत्नशील रहना चाहिये ।
इस प्रकार से सुकविजनरूपी कमलों के लिये सूर्यसमान, पंचेन्द्रियों के व्यापार से रहित गात्र मात्र परिग्रहधारी श्री पद्मप्रभमलधारीदेव के द्वारा विरचित नियम की तात्पर्यवृत्ति नामक व्याख्या में शुद्धनिश्चय प्रायवित्त अधिकार नाम वाला श्रुतस्कंध पूर्ण हुआ ।