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नियमसार
( मालिनी )
अनवरत मखंडाद्वै तचिह्निविकारे निखिलनयविलासो न स्फुरत्येव किंचित् । अपगत इह यस्मिन् भेववादस्समस्तः तममभिनमामि स्तौमि संभावयामि ।।१६२ ॥ ( अनुष्टुभ् )
इदं ध्यानमिदं ध्येयमयं ध्याता फलं च तत् । एभिविकल्पजालैर्यनिर्मुक्तं तन्नमाम्यन् ॥ १६३॥ ( अनुष्टुभ् ) भेदवादाः कदाचित्स्र्यस्मिन् योगपरायणे ।
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तस्य मुक्तिर्भवेन्नो वा को जानात्याहंते मते ।११६४ ॥
(१६२ ) श्लोकार्थ - सततरूप से अखंड अद्वैत चैतन्यम्प निर्विकार तत्त्व अखिल नयों का विलास किंचित् स्फुरायमान ही नहीं होना है, यहां जिसमें सम भेदवाद समाप्त हो चुका है, उसको मैं नमस्कार करता हूं उसका स्तवन करता हूँ. उसी की सम्यक् प्रकार से भावना करता हूं ।
( १९३ ) श्लोकार्थ - यह ध्यान है, यह ध्येय है, यह ध्याता है और वह हैं इन विकल्प जालों से जो निर्मुक्त है मैं उसे नमस्कार करता हूं ।
( १९४) श्लोकार्थ - जिस योग परायण - ध्यान लीन अवस्था में कान भेदवाद होते हैं, अरहन्त देव के मत में उसकी मुक्ति होगी या नहीं, कौन जानता भावार्थ — वीतराग निर्विकल्प ध्यान में ही शुद्ध नियमख्य प्रायश्चित्त) है । इस निर्विकल्प अवस्था के हुए बिना कर्मों का नाश होना संभव नहीं है । भी कहा है
"मा' चिट्ठह मा जंप, मा चितह किवि जेण होइ थिरो ।
अप्पा अप्पम्म रओ, इणमेव परं हवे झाणं ।। ५६ ।। "
१. द्रव्यसंग्रह 1