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नियमसार
सहस्रसहवयरणरयभा, रायादी 'भाववारणं किच्चा । अप्पा जो झायदि, तस्स दु नियमं हवे नियमा ॥१२०॥
शुभाशुभवचनरचनानां रागादिभाववारणं कृत्वा । आत्मानं यो ध्यायति तस्य तु नियमो भवेशियमात् ॥ १२० ॥
जो शुभ अशुभ वचन रचना को पूर्णतया तज करके । रागादिक अंतर भावों को स्वयं दूर अति करके ॥ दिन आत्मा को पाते हैं नित निश्चल मन हो करके ।
परम समाधीत उन मुनि के होना नियम नियम से ।। १२० ।।
शुद्धनिश्रयनियमस्वरूपाख्यानमेतत् । यः परमतत्वज्ञानी महातपोधनो देनं बैनं संचितसूक्ष्मकर्मनिर्मूलनसमर्थनिश्चयप्रायश्चित्तपरायणो नियमितमनोवाक्कायत्वाद्भववल्लीमूलकंदात्मक शुभाशुभस्वरूपप्रशस्ता प्रशस्त समस्तवचनरचनानां निवारणं करोति,
गाथा १२०
अन्वयार्थ -- [ यः ] जो [ शुभाशुभवचन रचनां ] शुभ-अशुभ वचन रचना को, [ रागादि भाववारणं ] रागादि भाव के निवारण को, [ कृत्वा ] करके, ध्यायति ] आत्मा को ध्याता है, [ तस्य तु ] उसके, [ नियमात् नियमो भवेत् ] नियम [ आत्मानं से नियम होता है |
टोका - शुद्ध निश्चय नियम के स्वरूप का यह कथन है ।
जो परमतत्व ज्ञानी महातपोवन प्रतिदिन संचित हुए सूक्ष्म कर्मों के निर्मूलन में समर्थ ऐसे निश्चय प्रायश्चिन में परायण हैं, वे मन वचन और काय के नियमितनियन्त्रित होने से भवबेल की मूलकंदम्प ऐसे शुभ-अशुभस्वरूप प्रदास्त और यशस्व समस्त वचनों की रचना - बोलने का निवारण करते हैं, न केवल इन वचन रचनाओं
१. रायादि ( क ) पाठान्तर
२. रचनानां पाठ अशुद्ध प्रतीत होता है ।