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शुद्धनिश्चय-प्रायश्चिन अधिकार
निद्धताहःसंहति तं मुनीन्द्र
वन्दे नित्यं तद्गुणप्राप्तयेऽहम् ॥१८३।। कि बहुणा भरिगएण दु, वरतवचरणं महेसिणं सव्वं । पायच्छितं जागह, अणेयकम्माण खयहेऊ ।। ११७ ॥
कि बहना भणितेन तु वरतपश्चरणं महर्षीणां सर्वम । प्रायश्चित्तं जानीह्यनेककर्मणां क्षयहेतुः ॥ ११७ ।। इस प्रकरण में बहुत अधिना कहने से क्या : मनन् भो । महपियों का श्रार तपश्चरणादि सभी कुछ भी जा ।। उनम प्रायश्चित वही है. निश्चय में गन्धानी ।
कि गर्व कर्मा का क्षय में संतु वही है माना ।।११।। इह हि परमतपश्चरणनिरतपरमजिनयोगीश्वराणां निश्चयप्रायश्चित्तम्, एवं मस्ताचरणानां परमाचरणमित्युक्तम् । बहुभिरसत्प्रलापरलमलम् । पुनः सर्व निश्चयव्यव-- . . . . .. .. .-. - - .. . - - - - सौन्द्रों को निन्य ही उनके गुणों की प्राप्ति के लिये मैं वंदन करता हूं।
गाथा ११७
अन्वयार्थ - [ बहुना भणितेन तु कि ] बहुत कहने में नया, [ महर्षिणां सर्व सपश्चरणं ] मषियों के सभी थेप्ट तपश्चरण को, [ प्रायश्चित्त जानीहि ] मश्चित्त जानो, [ अनेककर्मणां ] जो कि अनेक कर्मों के, [ क्षयहेतु: ] भय का
टीका--परम तपश्चरण में लीन हुए जिन योगीश्वरों के निश्चय प्रायश्चित्त ा है, जो कि समस्त आचरणों में परम आचरण है, ऐमा यहां पर कहा है ।
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बहुन मे असत् प्रलापों रो वम होवें. बस होवें । परम जिन योगियों के अनादि र से बंधे हुए द्रव्यकर्म और भावकों का सम्पूर्ण विनाश करने में कारणभूत, सभी