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निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार
(मालिनी) जयति सहजतत्त्वं तत्त्वनिष्णातबुद्धः हृदयसरसिजाताभ्यन्तरे संस्थितं यत् । तदपि सहजतेजः प्रास्तमोहान्धकार स्वरसविसरभास्वबोधविस्फूर्तिमात्रम् ॥१४८।।
( पृथ्वी) अखंडितमनारतं सकलदोषदूरं परं भवांबुनिधिमग्नजीवततियानपात्रोपमम् । अथ प्रथलदुर्गवर्गदवह्निकोलालकं नमामि सततं पुनः सहजमेव तत्त्वं मुदा ॥१४६॥
लिए अग्नि के मदश है बह चारित्र प्रत्याख्यान से ही होता है, अतः हे भव्योतम ! । तृम शीघ्र ही अपनी वृद्धि में उस तत्व को नितति धारण करों । जो कि कैसा है ? ' सहजमुम्ब को देने वाला ऐमा मुनियों के शील-चारित्र का मूल है ।
भावार्थ - प्रत्याख्यान अर्थात त्याग, इसके बिना सम्यक्चारित्र ही असम्भव है अतएव यह त्याग ही मुनियों के सम्पूर्ण चारित्र वृक्ष की जड़ स्वरूप है । एसा समझना।
(१४८) श्लोकार्थ-महजतन्व जयशील हो रहा है जो कि तत्त्व में निष्णात बुद्धि वाले ऐसे महामुनि के हृदयकमल के मध्य में विराजमान है । अस्त कर दिया है मोहरूपी अंधकार को जिसने ऐसा वह सहज तेज ( स्वाभाविक ज्योति ) अपने रसअनुभव के विरतार मे देदीप्यमान ज्ञान का स्फुण मात्र-प्रकाश मात्र है ।
(१४६) श्लोकार्य-जो अम्वण्डित-अखण्ड एक, अनारत-अविछिन्न, सकल दोषों से दूर, उत्कृष्ट, संसार समुद्र में डूबे हुए जीव समूह के लिये जहाज स्वरूप, प्रबल दुर्ग-संकट समूहरूपी दावानल को बुझाने के लिये जल के सदृश है, ऐसे उस सहज तत्त्व को ही मैं हर्ष से पुनरपि सतत नमस्कार करता हूं।