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परम-प्रालोचना अधिकार
हृदि विलसितं शुद्ध ज्ञानं च पिंडमनुत्तमं पदसिदो ज्ञात्वा सूपोऽपि आदि बराबलम् ॥१६७५॥ ( हरिणी )
जयति सहजं तत्त्वं तत्त्वेषु मित्यमनाकुलं सततसुलभं भास्वत्सम्यग्दृशां समतालयम् । परमकलया सार्धं वृद्धं प्रवृद्धगुणैनिजे: स्फुटितसहजावस्थं लीनं महिम्नि निजेऽनिशम् ॥१७६॥ ( हरिणी )
सहजपरमं तत्त्वं तत्त्वेषु सप्तसु निर्मलं सकलविमलज्ञानावासं निरावरणं शिवम् ।
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. की बात है कि हृदय में शोभायमान, शुद्ध, ज्ञानस्वरूप, पिंडमय और सर्वोत्तम इस पद को जानकर पुनरपि सरागता को प्राप्त हो जाते हैं ।
भावार्थ - निर्विकल्प तत्त्व की भावना से परिणत हुये साधु कमवि के लिये कारणभूत ऐसी क्रियाओं को करने का उपदेश नहीं देते हैं । यदि छठे गुणस्थान में आकर देते हैं तो वे सरागी कहलाते हैं। यहां टीकाकार आश्चर्यपूर्ण शब्दों में या खेद पूर्ण शब्दों में कहते हैं कि एक बार वीतरागता को प्राप्त करने के बाद पुनरपि सराग • अवस्था को क्यों प्राप्त होते हैं । वास्तव में अंतर्मुहूर्त से अधिक निर्विकल्प ध्यान की स्थिति होती नहीं है इसलिये जानते हुये भी मुनिजन छठे गुणस्थान में आकर संघ संरक्षण, पोषण आदि शुभोपयोग में प्रवृत्त होते हैं, किंतु महामुनियों के लिये यह उत्सर्गमार्ग नहीं है ।
( १७६) श्लोकार्थ – तत्वों में जो सहजनस्व है वह नित्य ही अनाकुल है, सतत सुलभ है, प्रकाशशील है, सम्यग्दृष्टियों के लिये समता का निकेतन है, परमकला से सहित है अपने प्रवृद्धमान गुणों के साथ-साथ वृद्धिंगत है, प्रगटित सहज अवस्थारूप है और निरंतर अपनी महिमा में लीन है ऐसा यह तत्त्व जयशील हो रहा है ।
( १७७ ) श्लोकार्थ - जो सहज परमतत्त्व सात तत्त्वों में निर्मल हैं, सकल बिमलज्ञान - केवलज्ञान का निवासगृह है, आवरण रहित है, शिव-कल्याणरूप है, अति