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परम-आलोचना अधिकार
[ ३१५ । इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवजितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलपरिदेवविरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्ती परमालोचनाधिकारः सप्तमः तस्कन्धः ॥
। विशेषार्थ-इस आलोचना के अधिकार में आचार्यदेव ने शुद्धनय के आश्रित
सी निश्चय आलोचना का ही विस्तार से वर्णन किया है। वास्तव में जो साधु विवहार चर्या में पूर्ण निष्णात हैं वे निष्पन्न योगी ही इस निश्चय आलोचना को प्राप्त कर सकते हैं, फिर भी सामान्य साधुओं को भी इसकी भावना सदैव करते रहना जाहिए और व्यबहार आलोचना में पूर्णतया निर्दोषता लानी चाहिये । जो श्रावक या -अवती सम्यग्दृष्टि हैं उनका कर्तव्य है कि इस आलोचना को प्राप्त कराने वाले ऐसे यवहारचारित्र में मचि रखते हुए उसको पूर्ण कराने में कारणभूत ऐसे साधुओं का समागम करना चाहिये और अपने पद के योग्य क्रियाओं में पूर्ण सावधानी रखते हुए अपने दोषों की भी आलोचना करते रहना चाहिये । । इसप्रकार से सुकविजनरूपी कगलों के लिये सूर्य के समान पंचेन्द्रिय के विस्तार से वजित गरीर मात्र परिग्रहधारी ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारीदव द्वारा विरचित नियमसार की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में परमआलोचना अधिकाररूप सातवां अतस्कंध पूर्ण हुआ।