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शुद्धनिश्चय - प्रायश्चित्त अधिकार
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निश्चयप्रायश्चित्तस्वरूपाख्यानमेतत् । पंचमहाव्रतपंचसमितिशील सकलेन्द्रिय मनकायसंयम परिणामः पंचेन्द्रियनिरोधश्च स खलु परिणतिविशेषः प्राया प्राचुर्येण निविकारं चित्तं प्रायश्चित्तम्, अनवरतं चान्तर्मुखाकारपरमसमाधियुक्तेन परमजिनयोगीश्वरेण पापाटवी पावकेन पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्र मात्रपरिग्रहेण सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणिना परमागममकरंदे निष्यन्दि मुखपद्मप्रभेण कर्तव्य इति ।
( मंदाक्रांता )
प्रायश्चित्तं भवति सततं स्वात्मचिता मुनीनां मुक्ति यांति स्वसुखरतयस्तेन निद्धूतपापाः ।
टीका - निश्वय प्रायश्चित्त के स्वरूप का यह कथन है |
मन,
जो पंच महाव्रत, मंत्र समिति, गीत और सम्पूर्ण इन्द्रिय तथा वचन - काय के संगमनरूप संयम परिणाम है और जो पंचेन्द्रियों का निरोध है, निश्चितरूप से वह परिणति विशेष प्रायश्चित्त है अर्थात् प्रायः - प्रचुरता से निर्विकाररूप चित्त प्रायश्चित्त कहलाता है । हमेशा अन्तर्मुख परिणतिरूप परम समाधि से युक्त, परम जिन योगीश्वर, पापरूप वन के लिए अग्नि के सदृश, पंचेन्द्रियों के व्यापार से वर्जित, गात्रमात्र परिग्रहवारी, सहज बैरारूप महल के शिखर की शिखामणि स्वरूप, परमागमरूप मकरन्द-पुंसरस जिनके मुख मे झरता है ऐसे मुझ पद्मप्रभ मुनि के द्वारा वह प्रायश्चित्त करना चाहिए ।
भावार्थ - यह स्वयं टीकाकार ने अपने आपको प्रायश्चित्त क्रिया में प्रेरित किया है तथा बहुत ही सुन्दर विशेषणों से अपनी चर्या को ध्वनित कर दिया है, यह अहंकार नहीं है किन्तु उनका अपना गौरव है वे स्वयं एक निर्ग्रन्थ मुनिराज थे, उनकी प्रवृत्ति यदि ऐसी नहीं होती तो वे अपनी असत्य प्रशंसा नहीं लिखते । वास्तव में वे इन निश्चय क्रियाओं में कभी-कभी परिणत होते हुए अपनी शुभ प्रवृत्ति से प्रवर्तन करने वाले सच्चे साधु थे । उनमें गर्व की बात नहीं है प्रत्युत इन पंक्तियों से उनका गौरव ही व्यक्त होता है ।
[ टीकाकार मुनिराज प्रायश्रित का लक्षण स्पष्ट करते हुए श्लोक कहते हैं - ] ( १८० ) श्लोकार्थ -- गुनियों को जो सतत अपने आत्मस्वरूप का चितवन होता है वही प्रायश्चित्त है, क्योंकि स्वसुख में रति करने वाले मुनिराज उसके द्वारा
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