________________
L
-
[ ३११
परम-पालोचना अधिकार
( मालिनी) अथ जिनपतिमार्गालोचनाभेदजालं परिहतपरभावो भव्यलोकः समन्तात् । तदखिलमवलोक्य स्वस्वरूपं च बुद्ध्वा स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ॥१७१॥
(बसंततिलका) आलोचना सततशुद्धनयात्मिका या निर्मुक्तमार्गफलदा यमिनामजस्रम् । शुद्धात्मतत्त्वनियताचरणानुरूपा स्यात्संयतस्य मम सा किल कामधेनुः ।।१७२॥
(१७१) श्लोकार्थ-भव्य जीव जिनेन्द्र देव के शासन में कहे हुए आलोचना के भेदों को संपूर्ण रूप से अवलोकित कर तथा अपने स्वरूप को जानकर सब ओर से परभावों को छोड़ देते हैं वे मुक्तिवल्लभा के प्रियवल्लभ हो जाते हैं।
(१७२) श्लोकार्थ-जो आलोचना सतत शुद्धनबम्वरूप है, संयमीजनों को सदा ही मोक्षमार्ग के फल को देने वाली है, शुद्धात्मनत्व में निश्चित आचरणरूप है वह मुझ (पद्मप्रभ) संयत के लिये निश्चितरूप से कामधेनुरूप होवे ।
भावार्थ---यहां टीकाकार श्री पद्मप्रभमलबारीदेव प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि यह निश्चय आलोचना मुझं कामधेनु के समान इच्छित फन्नदायी होवे । जैसे कामधेनु विद्यारूप एक गाय होती है वह जब चाहो नब इच्छानमार मधुर दूध देती ही रहती है चाहे जितना भी आप ले सकते हैं उसीप्रकार में निश्चयनयरूप आलोचना जब इच्छित मोक्ष फल को भी जब चाहो तब दे देती है तो और किसी लौकिक फल की तो बात ही क्या है ? वे तो मिल ही जाते हैं। अथवा तद्भवमोक्षगामी के लिये यह आलोचना लौकिक फल के सर्वथा अभाव से ही उत्पन्न होती है और अलौकिक । फल को ही देने वाली है।