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नियो । मदः, अत्र मदशब्देन मदनः कामपरिणाम इत्यर्थः । चतुरसंदर्भगर्भीकृतवैदर्भकवित्वेन आदेयनामकर्मोदये सति सकलजनपूज्यतया, मातृपितृसम्बन्धकुलजातिविशुद्धघा वा शतसहस्रकोटिभटाभिधानप्रधानब्रह्मचर्यवतोपाजितनिरुपमबलेन च, दानादिशुभकापाजितसंपवृद्धिविलासेन, अथवा बुद्धितपोवैकुणौषधरसबलाक्षीदिभिः सप्तभिर्वा कमनीयकामिनीलोचनानन्देन वपुर्लावण्यरसविसरेण वा आत्माहंकारो मानः । गुप्तपापतों माया । युक्तस्थले धनव्ययाभावो लोभः; निश्चयेन निखिलपरिग्रहपरित्यागलक्षणनिरंजननिजपरमात्मतस्वपरिग्रहात् अन्यत् परमाणमात्रद्रव्यस्वीकारो लोभः । एभिश्चभिः भावः परिमुक्तः शुद्धभाव एव भावशुद्धिरिति भव्यप्राणिनां लोकालोकप्रदशिभिः परमवीतरागसुखामृतपानपरितृप्त गद्भिरहद्भिरभिहित इति ।
नीव चारित्रमोह के उदय के बल से पुरुषवेद नामक नो कपाय का विलास मद कहलाता है। यहां पर 'मद' इस शब्द से मदन अर्थात् कामरूप परिणाम को लिया है । चतुर बचनों की रचना मे गभित बैदर्भ कवित्व से आदेयनामकर्म का उदयम होने पर सभी जनों से पूज्य होने पर अथवा माता और पिना संबंधी जाति एवं कुता विशुद्धि से तथा ( व्रतों में ) प्रधान ब्रह्मचर्य वन से उपाजित लाखों कोटिभट समा उपमा रहित बल के होने से दानादि शुभकर्म से उपाजित संपत्ति के वृद्धि के विलास में अथवा बुद्धि, तप, विकिया, औषधि, रस, वन और अक्षीण इन नामवाली सास ऋद्धियों से अथवा कमनीय कामिनियों के नेत्रों को आनंदित करने वाले ऐसे शरीर में लावण्य रस के विस्तार से अपने में अहंकार होना मान कहलाता है । गुप्तपाप से मायईहोती है । योग्यस्थान में धन का व्यय न करना लोभ कहलाता है तथा निश्चयनय हो समस्त परिग्रह के त्यागस्वरूप निरंजन निजपरमात्मतत्व के परिग्रह से अतिरिक्त अन्य परमाण मात्र द्रव्य को स्वीकार करना लोभ है । इन चार प्रकार के भावों से रहिक शुद्धभाव ही भावशुद्धि है। इस प्रकार में लोक-अलोक को देखने वाले, परमवीतरा सुखामृत के पान से परितप्त भगवान् अर्हतदेव ने भव्य जीवों के लिये कहा है।
। [अब टीकाकार श्री मुनिराज निश्चय आलोचना के प्रति अपनी विशेष करिव्यक्त करते हुए नव श्लोकों द्वारा उसके महत्व को दिखलाते हैं।]
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