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नियमसार
{ मालिनी) अथ सुललितवाचां सत्यवाचामपीत्थं न विषयमिदमात्मज्योतिराद्यन्तशून्यम् । तदपि गुरुवचोभिः प्राप्य यः शुद्धदृष्टि हा भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ॥१६६।।
(मालिनी) जयति सहजतेजःप्रास्तरागान्धकारो मनसि मुनिवराणां गोचरः शुद्धशुद्धः । विषयसुखरतानां दुर्लभः सर्वदायं परमसुखसमुद्रः शुद्धबोधोऽस्तनिद्रः ।।१७०।।
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(१६६) श्लोकार्थ—इसप्रकार यह आत्मज्योति आदि और अंत मे अन्य है । सल लिन वचनों के तथा सत्य वचनों के भी गोचर नहीं है फिर भी गुरु वचनों से उसे प्राप्त कर के जो शुद्ध सम्यग्दृष्टि होता है वह परमधी कामिनी अर्थात् मुक्तिरूपी सुन्दरी । का वल्लभ हो जाता है ।
भावार्थ—यह आत्म तस्त्र बचनों से नहीं कहा जा सकता है अनुभव का विषय है फिर भी गुरुओं के वचनों के बिना इसे प्राप्त भी नहीं किया जा सकता है यह अकाट्य नियम है, जितने भी जीव मोक्ष गये हैं उन्होंने गुरुओं के वचनों का अवलम्बन अवश्य लिया है। यहां तक कि सम्यक्त्व की उत्पत्ति में देशनालब्धि भी एक लब्धि मानी है जो कि गुरु के उपदेशरूप है । निसर्गज सम्पर्शन जिसको हआ है उसे भी पूर्व में कभी गुरूपदेश रूप देशनालब्धि अवश्य प्राप्त हो चुकी है।
(१७०) श्लोकार्थ- जिसने सहज स्वाभाविक तेज से गागरूपी अंधकार को अत्यन्तरूप से समाप्त कर दिया है, जो मुनिवरों के मन में वास करता है, शुद्ध में भी शुद्ध अर्थात् परिपूर्ण शुद्ध है, विषय सुख में आसक्त हुये जीवों को सदैव दुर्लभ है परम सुख का समुद्र है और जिसने निद्रा को समाप्त कर दिया है ऐसा शुद्धज्ञानस्वरूप आत्मा जयशील हो रहा है ।