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नियमसार
लोके शमामृतमयोमिह तो हिमानी यायावयं मुनिपतिः समताप्रसादात् ॥१६४।।
( बसंततिलका ) मुक्तः कदापि न हि याति विभावकायं तद्धेतुभूतसुकृतासुकृतप्रणाशात । तस्मादहं सुकृतदुष्कृतकर्मजालं
मुक्त्वा मुमुक्षुपथमेकमिह व्रजामि ।।१६५।। - - - - -- - - - -- - .. - --- -
भावार्थ-संसार में साहजिक, मानसिक, शारीरिक और आगंतुक ऐने चार प्रकार के दुःख माने गये हैं जो बहुत ही भयंकर हैं। इनसे लोक संतप्त हो रहा है, अभिप्राय यह है कि इस लोक में रहने वाले संसारी प्राणी संतप्त हो रहे हैं से ही तप्तायमान हुए संसार में समतादेवी की उपासना के प्रसाद से मुनिराज ही शमभाव रूप बर्फ के समूह को प्राप्त करके शीतलता का अनुभव करते हैं अन्य नहीं 'परमेको मुनिः सुखी' गुणभद्र स्वामी का भी कहना है-इस संसार में एक महामुनि ही मुखी हैं अर्थात् मुनिराज रागद्वेष को दूर करके परमसमता भाव को धारण कर सकते हैं और उन्हें ही वीतरागता से जो मुख उत्पन्न होता है वह परम शांतिदायी है।
(१६५) श्लोकार्थ--मुक्तजीव कभी भी विभावभाव के समूह को प्राप्त नहीं होते हैं क्योंकि उनके उस विभाव के कारणभूत से शुभ और अशुभ संपूर्ण कर्मों का अत्यन्त नाश हो गया है। इसलिए मैं शुभ और अशुभ ऐसे सभी कर्मों को छोड़कर इस एक मुमुक्ष के मार्ग को प्राप्त करता हूं 1
भावार्य-यहां पर 'मुमुक्षु' पद से वीतराग महामुनि के मार्ग को प्राप्त करने की बात है क्योंकि वीतराग निर्विकल्प समाधि में स्थित साधु ही पुण्य पाप ऐसे सभी कर्मों का संवर करते हैं वे ही मुमुक्षु कहलाते हैं ।
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