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नियममार
जो परसदि पप्पारणं समभावे संठवित्तु परिणामं । आलोयर मिवि जारणह, परमजिणंदस्स उवएसं ॥१०६ ॥
पः स्यात् समने संस्थाप्य परिणामम् । आलोचनमिति जानीहि परमजिनेन्द्रस्योपदेशम् ॥१०६॥
जो स्वपरिणाम को साम्य में थापके । स्वात्म में शुद्ध आत्मा को प्रवलोकते ।।
उन मुनि के हि आलोचना जानिये | ये हि उपदेश अर्हत का मानिये ||१०||
इहालोचना स्वीकारमात्रेण परमसमताभावनोक्ता । यः सहजवैराग्यसुधासिंधुनाथडंडीरपिंडपरिपांडुरमंडन मंडली प्रवृद्धिहेतुभूत राकानिशीथिनीनाथः सदान्तर्मु खाकार
कहा है ।
होते हैं । उन अपनी आत्मा में निष्ठित विराजमान साधु को मेरा नमस्कार होवे | भावार्थ - इससे मुनिराज की साधुओं के गुणों में अनुरागरूप विशेष भक्ति प्रगट हो रही है क्योंकि जो जिस गुण का इच्छुक होता है वह उस गुण उपासना अवश्य करता है ।
युक्त की
गाथा १०६
अन्ययार्थ – [ यः ] जो [ सभभावे परिणामं संस्थाप्य ] समताभाव में अपने परिणाम को संस्थापित करके [आत्मानं पश्यति ] अपनी आत्मा का अवलोकन करता है [ थालोचनं ] वह आलोचना है [ इति ] ऐसे [ परमजिनेन्द्रस्य उपदेशं ] परमजिनेन्द्र के उपदेश को [ जानीहि ] तुम जानो ।
टीका - यहां पर आलोचना के स्वीकार मात्र मे परमसमताभावना को
जो सहज वैराग्यरूपी अमृतसमुद्र के फेन समूह की शोभामंडली को प्रकर्षरूप से बढ़ाने के लिये पूर्णिमा की अर्धरात्रि के पूर्णचन्द्र हैं अर्थात् स्वाभाविक वैराग्य की उज्ज्वलता को द्विगुणित किये हुये हैं ऐसे महामुनि सदा अंतर्मुखाकार - अभ्यन्तर में