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परम आलोचना अधिकार
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क्षयोपशमविविधविकारविवर्जितः । अतः कारणादस्यैकस्य परमत्त्वम् इतरेषां चतुर्णां विभावानामपरमत्वम् । निखिलकर्म विषवृक्षमूलनिर्मूलनसमर्थ: त्रिकालनिरावरणनिजकारणपरमात्मस्वरूप श्रद्धान प्रतिपक्षतीश्रमिथ्यात्यकर्मोदयबलेन कुदृष्टेरयं परमभावः सदा निश्चयतो विद्यमानोष्यविद्यमान एव । नित्यनिगोद क्षेत्रज्ञानामपि शुद्धनिश्चयनयेन स परमभावः अभव्यत्वपारिणामिक इत्यनेनाभिधानेन न संभवति । यथा मेरोरधोभागस्थित सुवर्णराशेरपि सुवर्णत्वं श्रभव्यानामपि तथा परमस्वभावत्वं वस्तुनिष्ठं न विहारयोग्यम् । सुदृशामत्यासन्न भव्यजीवानां सफलीभूतोऽयं परमभावः सदा निरंजनवात, यतः सकलकर्मविषमविषद् पृथुमूलनिमूं लनसमर्थत्वात् निश्चयपरमालोचनाविकरूपसंभवालु दनाभिधानम् अनेन परमपंचम भावेन अत्यासन्नभव्यजीवस्य सिध्यतीति ।
है । इसीलिये वह कर्मो के उदय उदीरणा, क्षय, क्षयोपशमरूप विविध विकारों में वर्जिन है । उस कारण एक भाव ही परमय है अन्य चार भाव अपरूप हैं | संपूर्ण कर्मी विपक्ष के मूल को निर्मूलन करने में समर्थ, त्रिकाल निरावरण निजकारण परमात्मा के स्वरूप का जो श्रद्धान है उससे विपरीत जो मिथ्यात्व कर्म है उसके तीव्र उदय के निमित्त मे मिथ्यादृष्टि जीव के यह परमभाव निश्चयन मे सदा विद्यमान होते हुए भी अविद्यमान ही है । नित्यनिगोद क्षेत्र के जीवों में भी शुद्ध निश्चयनय से वह परमभाव 'अभव्यत्वपारिणामिक' इस नाम से संभव नहीं है । जैसे मेरु के नीचे भाग में रहने वाली सुवर्णराशि को भी सुवर्णपना है उसीप्रकार से अभव्यों के भी परमस्वभावपना है किन्तु वह वस्तु में स्थित है व्यवहार के योग्य नहीं है ।
सम्यग्दृष्टि जो अत्यासन्न भव्य जीव हैं उनमें सदा निरंजनरूप होने से बह परमभाव सफलीभूत है क्योंकि वह सकल कर्मरूपी विषम विषवृक्ष की विशाल जड़ को उखाड़ने में समर्थ है ।
इस पर पंचमभाव के द्वारा अत्यासन्न जीव के यह निश्चय परमआलोचना के भेद में होने वाली आलुञ्छन नामकी आलोचना सिद्ध होती है ।
विशेषार्थ - यद्यपि क्षायिकभाव कर्मों के क्षय से होता है और वह सिद्धों में भी क्षायिक सम्यवत्व, ज्ञान, दर्शन आदि से विद्यमान है फिर भी यहां उसे विभाव भाव