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परम-पालोचना अधिकार
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(मंदाक्रांना) प्रासंसारादखिलजनतातीव्रमोहोदयात्सा मत्ता नित्यं स्मरक्शगता स्वात्मकार्यप्रमुग्धा । ज्ञानज्योतिर्धवलितककुभमंडलं शुद्धभावं
मोहाभावात्स्फुटितसहजावस्थमेषा प्रयाति ॥१६१।। कम्मादो अप्पारणं, भिण्णं भावेइ विमलगुणरिणलयं । पज्यमलावणार, वियडीकालं ति विष्णेयं ॥१११।
कर्मणः प्रात्मानं भिन्नं भावयति विमलगुणनिलयम् ।
मध्यस्थभावनायामविकृतिकरणमिति विनेयम् ॥१११॥ - - -- - - - - - - - - - - -
(१६१) श्लोकार्थ--अनादिकालीन संसार मे यह अखिल जनसमूह तीनमोह के उदय रो मत्त है, नित्य ही काम के वशीभून हैं और अपनी आत्मा के कार्य में अत्यधिक मूढ़ है । यह जनसमूह मोह के अभाव में प्रगटित सहजावस्थारूप, ज्ञानज्योति से सर्व दिशाओं को धवलित करने वाले ऐसे शुद्धभाव को प्राप्त कर लेता है ।
भावार्थ-संसारी जीव अनादिकाल मे गोह के उदय से अपने स्वभाव से पराङ मुख हुये हैं और विषयों में लगे हुए हैं । कहा भी है
अनादिविद्यादोषोत्थ-चतुःसंज्ञाज्वरानुराः । शश्वत्त्वज्ञानविमुखाः सागारा: विषयोन्मुखाः ।।सागार धर्मामृत।।
अनादिकालीन अविद्या के दोष से उत्पन्न ह्ये चार संज्ञारूपी ज्वर से पीड़ित के हो रहे हैं ऐसे सागार-गृहस्थ सदैव अपने आत्मज्ञान से विमुख हैं और विषयों में तत्पर । हो रहे हैं ऐसी स्थिति में मोह के अभाव से जब ज्ञानज्योति प्रगट होती है तब वही सहज शुद्ध अवस्था का अनुभव कराती है ।
गाथा १११ ___ अन्वयार्थ-[कर्मणः भिन्नं] कर्म से भिन्न और [विमलगुणनिलयं] विमल गुणों का निवासगृहरूप [आत्मानं] आत्मा को [भावयति] जो भाता है [ मध्यस्थ