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नियमसार
(बसंततिलका) त्यक्त्या विभावमखिलं निजभावभिन्न चिन्मात्रमेकममलं परिभावयामि । संसारसागरसमुत्तरणाय नित्यं
निर्मुक्तिमार्गमपि नौम्यविभेदमुक्तम् ।।१५६।। कम्ममहीरुहमलच्छेदसमत्यो सकीयपरिणामो। साहीणो समभावो, प्रालुछणमिदि समुद्दिट्ट ।।११०॥
कर्ममहीरहमूलच्छेदसमर्थः स्वकीयपरिणामः । स्वाधीनः समभावः आलुञ्छनमिति समुद्दिष्टम् ।।११०।।
कामं मूल को छेदने में यह।। शुद्ध निज का जो परिणाम सगरथ वही ।। यो है परिणाम ग्वाधीन मम भाव मात्र 1
उसको कहते हैं ग्रालुछना जिन अभय ।। ? १०।। परमभावस्वरूपाख्यानमेतत् । भव्यस्य पारिणामिकभावस्वभावेन परमस्वभा। औयिकादिचतुर्णां विभावस्वभावानामगोचरः स पंचमभावः । प्रत एवोदयोदोरणक्षद
-.-.--. (१५६) श्लोकार्थ-अपने भाव से भिन्न ऐस सकल विभाव को छोड़करः | निर्दोष एक चिन्मात्र की भावना करता हूं । संसार सागर से पार होने के लिये अभी। रूप में कथित ऐसे मोक्ष मार्ग को भी मैं नित्य ही नमस्कार करता हूं।
गाथा ११० ___ अन्वयार्थ—[कर्ममहोरहमूलच्छेदसमर्थः] जो कमपी वृक्ष की जड़ को छ । में समर्थ है [स्वाधीनः] अपने आधीन है और [ समभावः ] ममभावरूप है ऐसा [ स्वकीय परिणामः ] अपनी आत्मा का परिणाम है वह [ आलु छनं ] आलु छन [इति निर्दिष्टं] ऐसा कहा है।
टोका-परमभाव के स्वरूप का यह कथन है ।
भव्य जीव का पारिणामिक भावस्वभाव से जो परमस्वभाव है वह पंचम औदयिक, क्षायोपशमिक, क्षायिका और औपशमिक इन चार विभावस्वभावों के अगो.