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परम-आनोचना अधिकार
[ २६५ नाम मालोचना और आलुछना । और अविकृतिकरण भावशुद्धी भरणा ॥ ये चतुर्विध कहे श्रेष्ठ जिनशास्त्र में।
सर्व पालोचना के ही लक्षण हैं ये ॥१०८।। आलोचनालक्षणभेदकथनमेतत् । भगवदर्हन्मुखारविन्वविनिगंतसकलजनता- पतिसुभगसुन्दरानन्दनिष्यन्धनक्षरात्मकदिव्यध्वनिरिमानकुशलचतर्थज्ञानधरगौतममह - विमुखकमलविनिर्गतचतुरसंदर्भगर्भीकृतराद्धांतादिसमस्तशास्त्रार्थसार्थसारसर्वस्वीभूतशुद्धनिश्चयपरमालोचनायाश्चस्वारो विकल्पा भवन्ति । ते वक्ष्यमाणसूत्रचतुष्टये निगद्यन्त
- इति ।
( इन्द्र वना) आलोचनाभेदममु विदित्वा मुक्त्यंगनासंगमहेतुभूतम् । स्वात्मस्थिति याति हि भव्यजीवः तस्मै नमः स्वात्मनि निष्ठित्ताय ।।१५३॥
आलोचनलक्षणं ] चार प्रकार आलोचना का लक्षण [ इह समये ] यहां आगम में [परिकथितं ] कहा है।
टीका-आलोचना के स्वरूप के भेदी का यह कथन है ।
भगवान अहंतदेव के मुखकमल मे निकली हुई, संपूर्ण जनता के कर्ण के लिये मनोहर और सुन्दर आनन्द को झराने वाली ऐसी जो अनक्षरात्मक दिव्यध्वनि है उसके जानने में कुशल चतुर्थ-मनःपर्यय ज्ञानधारी श्री गौतमगणधर महर्षि के मुख सरोज से निकले हुये चतुर वचनों की रचना से गभित ऐसे जो सिद्धांत आदि सकल शास्त्र हैं उन शास्त्रों के अर्थ समुदाय के सार में भी सर्वस्वरूप यह शुद्ध निश्चय परम आलोचना है उसके चार भेद होते हैं । वे चारों भेद आगे कही गई गाथाओं से कहे जाते हैं।
[टीकाकार श्री मुनिराज आलोचना से परिणत मुनि श्रद्धावनत नमस्कार करते हुए तथा निश्चय आलोचना में अपनी प्रगाढ़ रुचि प्रदर्शित करते हुए कहते हैं-]
(१५३) श्लोकार्थ-मुक्ति सुन्दरी के संगम के कारणभूत ऐसे इन आलोचना के भेदों को जानकर भन्य जीव निश्चितरूप में अपनी आत्मा में ही स्थिति को प्राप्त
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