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परम-पालोचना अधिकार
[ २६७ मस्यपूर्व निरंजननिजबोधनिलयं कारणपरमात्मानं निरवशेषेणान्तर्मुखस्वस्वभावनिरतसहजावलोकनेन निरन्तरं पश्यति । किं कृत्वा ? पूर्व निजपरिणाम समतावलंबनं कृत्वा परमसंयमोभूत्वा तिष्ठति । तदेवालोचनास्वरूपमिति हे शिष्य त्वं जानीहि परमजिननाथस्योपदेशात् इत्यालोचनाविकल्पेषु प्रथमविकल्पोऽयमिति ।
(सम्धरा) आत्मा ह्यात्मानमात्मन्यविचलनिलयं चास्मना पश्यतीत्थं यो मुक्तिश्रीविलासानतनुसुखमयान् स्तोककालेन याति । सोऽयं बंद्यः सुरेशर्यमधरततिभिः खेचरभू चरी तं वंदे सर्ववंद्य सकलगुणनिधि तद्गुणापेक्षयाहम् ॥१५४।।
उपयोग सहित, अनिगम, अपूर्व निरंजन निजज्ञान के निवासगृहरूप ऐसे कारण परमात्मा को निरवशेषरूप अंतर्मुख से अपने स्वभाव में लीन सहज अवलोकन-दर्शन के द्वारा निरन्तर देखते हैं। क्या करके ? पूर्व में अपने परिणाम को समता में अवलंबित करके परमसंयमी होकर स्थित होते हैं, वहीं-आत्मावलोकन आलोचना का स्वरूप है ऐसा हे शिष्य ! तुम परम जिननाथ के उपदेश से जानो। इसप्रकार से आलोचना के भेदों में यह पहला भेद है।
[अब टीकाकार मुनिराज आलोचना के गुणों का बखान करते हा छह श्लोक कहते हैं
(१५४) श्लोकार्थ—इसप्रकार से जो आत्मा अपनी आत्मा में अपनी आत्मा के द्वारा ही अविचलस्थानरूप ऐसी आत्मा को देखता है वह अनङ्गमुखमय (अतीन्द्रियसुखमय) मुक्ति नश्मी के विलास को अल्पसमय में प्राप्त कर लेता है सो यह आत्मा ।
सुरेन्द्रों मे, नंयमधारी मुनियों के समूह से, विद्याधरों से, भूमिगोचरियों से वंद्य है ऐसे । सभी से वंद्य संपूर्ण गुणों के निधान उस आत्मा की मैं उन गुणों की अपेक्षा होने से वंदना करता हूं।
भावार्थ-अपनी आत्मा में अपने द्वारा ही षट्कारकी लगाने से जो साधु अपने आप में ही स्थिर हो जाता है वह लोक में सभी के द्वारा वंदनीय हो जाता है