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नियमसार
(शिखरिणी) महानंदानंदो जगति विदितः शाश्वतमयः स सिद्धात्मन्युचनियतवसतिनिर्मलगुणें । अमी विद्वान्सोपि स्मरनिशितशस्त्ररभिहताः कथं कांक्षत्येनं बत कलिहतास्ते जडधियः ।।१४६॥
(मंदात्रांता) प्रत्यारूपानाद्भवति यमिषु प्रस्फुटं शुद्धशुद्धं सच्चारित्रं दुरघतरुसांद्राटवीवह्निरूपम् । तन्वं शीघ्र कुरु तव मतो भव्यशार्दूल नित्यं यत्किभूतं सहजसुखदं शीलमूलं पुनोनाम् ॥१४७।।
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की जगह 'योगिनामाम्यदान' पार होने में उसका अर्थ- "अन्य आगम में लीन अन्य योगियों का मुख दान (उपयोग) इस ओर नहीं हो सकता है, सा अर्थ देखा जाता है।
(१४६) श्लोकार्थ-- जो महान आनन्द स भी अधिक आनन्दम्प ऐसा महान आनन्द आनन्दम्वरूप जगत में प्रसिद्ध है, शाश्वतमय है, वह अनिश यरूप में निर्मल । गुणों से सहित सिद्धात्माओं में निश्चितम्प से निवास करता है, किन्तु ये विद्वान लोग । भी जो कामदेव के तीक्ष्ण शस्त्रों से घायल हैं, ऐसे इस परमतत्व की वाञ्छा कैसे | करते हैं ? अहो ! बड़ा आश्चर्य है, कि वे जड़ बुद्धि जीव पाप से नष्ट हो रहे हैं।
भावार्थ-जो परमतत्त्व मुक्त जीवों के पास है, संसारी प्राणी सम्पूर्ण विभाव विकल्पों से रहित उन्हीं सिद्धों में तन्मय-एक रूप होकर उसे प्राप्त कर सकत हैं कित जो विपय वासना में लिप्त हैं उनके लिये चाहने पर भी वह तन्त्र दुर्लभ है, नहीं मिलता है । इन्द्रिय और अतोन्द्रिय सुग्न एक साथ असंभव है । विषय सुख भी मिल और परमार्थ मुख भी ऐसा कभी किसीने न देखा है और न सुना ही है । साधुजना जब पूर्ण ब्रह्मचर्य के अवलम्बन से अंत: शुद्ध करते हैं उन्हें अंशात्मक आत्मा का आनंद आता है, वह आनन्द भोगी गृहस्थी को स्वप्न में भी दुर्लभ है ।
(१४७) श्लोकार्थ--जो सम्यक्चारित्र संयमियों में प्रगटरूप है शुद्ध में भी शुद्ध अत्यन्त शुद्ध है, और दुष्ट पाप कर्मरूपी वृक्षों से सघन ऐसे वन को जलाने के