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नियमसार निश्चयालोचनास्वरूपाण्यानमेतत् । औदारिकर्वक्रियिकाहारकर्तजसकार्मणानि शरीराणि हि नोकर्माणि ज्ञानदर्शनावरणांतराय मोहनीयवेदनीयायुर्नामगोत्राभिधानानि हि द्रव्यफर्माणि । कर्मोपाधिनिरपेक्षसत्ताग्राहकशुद्धनिश्चयद्रव्याथिकनयापेक्षया हि एभिनॊकर्मभिर्दथ्यकर्मभिश्च निर्मुक्तम् । मतिज्ञानादयो विभावगुणा नरनारकाविव्यंजनपर्यायाश्चैव विभावपर्यायाः । सहभुवो गुणाः क्रमभाविनः पर्यायाश्च, एभिः समस्तः व्यतिरिक्त, स्वभावगुणपर्यायः संयुक्त त्रिकालनिरावरगनिरंजनपरमात्मानं त्रिगुप्तिगुप्तपरमसमाधिना यः परमश्रमणो नित्यमनुष्ठानसमये वचनरचनाप्रपंचपराङ मुखः सन् ध्यायति, तस्य भावश्रमणस्य सततं निश्चयालोचना भवतीति । तथा चोक्त दीमा तननानिधि -
(आय) "मोहविलासविज़ भितमिदमुदयत्कर्म सकलमालोच्य । आत्मनि चतन्यात्मनि निष्कमणि नित्यमात्मना वर्ते ॥"
टोका-यह निश्चय आलोचना के स्वरूप का कथन है ।
औदारिक, वैक्रियक, आहारक, ते जम और कामंग ये पांचों शरीर ही नोकर्म हैं, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय, मोहनीय, वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र नाम ' वाले ये आठ द्रव्य कर्म हैं। कर्मों को उपाधि से निरपेक्ष गत्तामात्र ग्राहक जो शुद्ध, निश्चय द्रव्याथिकनय है उसकी अपेक्षा से जीव इन नोकर्म और द्रव्यकों से निमुक्त है। मतिज्ञान आदि विभावगुण हैं और नर नारकादि व्यंजन पर्याय विभाव पर्याय है, क्योंकि सहभावी गुण होते हैं और क्रमभावी पर्यायें होती हैं, इन समस्त विभावगुणपर्यायों से रहित तथा स्वभाव गुण और स्वभाव पर्यायों में सहित, त्रिकाल निराकरण निरंजनरूप ऐसी परमात्मा का जो परमश्रमण-महामुनि नित्य ही अनुष्ठान के समय में वचन रचना के प्रपंच से पराङ मुख होते हुए ध्यान करते हैं, उन भावथमण के सतत निश्चय आलोचना होती है ।
उसीप्रकार श्री अमृतचन्द्रसूरि ने भी कहा हैश्लोकार्थ--'मोह के विलास से विस्तार को प्राप्त और उदय में आता हु
१. समयसार कलश, २२७ ।