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परम-मालोचना अधिकार
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आलोचनाधिकार उच्यतेगोकम्मकम्मरहियं, विहावगुणपज्जएहिं वदिरित्तं । अप्पारणं जो झायदि, समणस्सालोयणं होदि ॥१०७॥ नोकर्मकर्मरहितं विभावगुणपर्यययतिरिक्तम् । आत्मानं यो ध्यावति श्रमणस्यालोचना भवति ॥१०७॥
सग्विणीछंद कर्म नोवार्भ से हीन जो शृद्ध है। गुगण व पर्याय वैभाव से रिक्त है ।। जो उमी आतमा को सदा ध्यावते । वे श्रमगा ही तो पालोचना पावते ॥१०७।।
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अब आलोचना अधिकार को कहते हैं
गाथा १०७ अन्वयार्थ-[नोकर्मकर्मरहितं] नोकर्म और द्रव्यकर्म से रहित [ विभावगुणपर्ययः व्यतिरिक्त ] विभावगुण पर्यायों से रहित [ आत्मानं ] आत्मा का [ यः व्यापति ] जो ध्यान करता है [तस्य] उस [श्रमणस्य] श्रमण के [मालोचना भवति] आलोचना होती है।