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नियमसार मुक्त्वानाचारमाचारे यस्तु करोति स्थिरभावम । स प्रतिक्रमणमुच्यते प्रतिक्रमणमयो भवेद्यस्मात् ॥५॥ जो बन के सर्व अनाचारों को बुद्धीपूर्वक तजते हैं । निजभावों को स्थिर करके, निजमातम अनुभव करते हैं ।। वे ही प्रतिक्रमण कहे जाते, क्योंकि प्रतिक्रमणरूप हैं ।
जो परमसमाधि में स्थित, निज में ही एकरूप हैं वे ।।८५॥
अत्र निश्चयचरणात्मकस्य परमोपेक्षासंयमधरस्य निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूपं च भवतीत्युक्तम् । नियतं परमोपेक्षासंयमिनः शुद्धात्माराधनाव्यतिरिक्तः सर्वोप्यऽनाचारः, अत एव सर्वमनाचार मुक्त्वा हाचारे सहजचिद्विलासलक्षणनिरंजने निजपरमात्मतत्त्वभावनास्वरूपे यः सहजवैराग्यभावनापरिणतः स्थिरभावं करोति, स परमतपोधन एवं प्रतिक्रमणस्वरूप इत्युच्यते, यस्मात् परमसमरसीभावनापरिणतः सहजनिश्चयप्रतिक्रमणमयो भवतीति ।
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[प्रतिक्रमणं उच्यते] प्रतिक्रमण कहलाता है, [ यस्मात् ] क्योंकि वह [प्रतिक्रमणमयो भवति] प्रतिक्रमणमय होता है ।
टीका-यहां निश्चय चारित्रस्वरूप परमापक्षासंबमधारी मनियों के निश्चय प्रतिक्रमण का स्वरूप होता है, ऐसा कहा है ।
निश्चितरूप से परमोपेक्षामंयमी साधु के शुद्धात्मा की आराधना से अतिरिक्त । सब कुछ अनाचार है, इसीलिए सभी अनाचार को छोड़कर सहज चैतन्य के विलास लक्षण वाले निरंजनरूप, निज परमात्मतत्त्व की भावनास्वरूप आचार में जो-साधु महजवैराग्यभावना से तन्मयरूप हुआ स्थिरभाव को करता है, वह परमतपोधन ही प्रतिक्रमणस्वरूप है इसप्रकार कहा जाता है । क्योंकि वह साधु परमसमरसी भावना से परिणत हुआ सहज निश्चय प्रतिक्रमण मय होता है ।
[अय टीकाकार श्री मुनिगज आत्मस्वरूप में स्थिर होने की प्रेरणा देते हुए दो श्लोक कहते हैं-]