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नियामगार
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( अनुष्टुभ ) शल्यत्रयं परित्यज्य निःशल्ये परमात्मनि । स्थित्वा विद्वान्मदा शुद्धमात्मानं भावयेत्स्फुटम् ।।११६।।
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कषायकलिरंजितं त्यजतु चित्तमुच्चर्भवान् भवभ्रमणकारणं स्मरशराग्निदग्धं मुहः । स्वभावनियतं सुखं विधिवशादनासादितं भजत्वमलिनं यते प्रबलसंमृते तितः ॥११७।।
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[अब टीकाकार मुनिराज शल्यहिन शुद्ध आत्मा की भावना से प्रेरित कर । हाए दो श्लोक कहते हैं-]
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{११६) श्लोकार्थ-नानी शल्यों का परित्याग करके, शल्य रहित परमा में स्थित होकर विद्वान् साधु सदा रपाटन मे शुद्ध आत्मा की भावना कर । अर्या | शुद्ध निश्चयनय से शल्यादि विकल्पों से रहित जो शुद्ध है उसमें तन्मय होक | अनुभव करे।
{११७) श्लोकार्थ-जो भत्र भ्रमण का कारण है, पुनः पुनः कामदेव वाणों की अग्नि से दग्ध है और कषाय की कलि-मल से रंगा हुआ है ऐसे चित्त | आप अत्यन्तरूप से छोड़ो, जो विधि-कर्म के वश से अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है ऐ । स्वभाव से नियत म्वाभाविक मृग्व है, वह अमलिन-निर्मल है। हे यति ! तुम प्रय संसार के भय से उस सुख का आश्रय लेबो ।
भावार्थ-आचार्य का कहना है कि अशुभ भावों से मलिन हुये चित्त । शुभ भावों से निर्मल करके स्वभाव में निश्चित रहने वाले ऐसे सहज परम सुख अनुभव करो।