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तथा हि
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नियमसार
( वसन्ततिलका )
" एकस्त्वमाविशसि जन्मनि संक्षये च भोक्तु स्वयं स्वकृतकर्मफलानुबन्धम् । अन्यो न जातु सुखदुःखविचौ सहायः स्वाजीवनाय मिलितं विटपेटकं ते ॥"
( मंदाक्रांता )
एको याति प्रबलदुरघाज्जन्म मृत्युं च जीवः कर्मद्वन्द्वोद्भवफलभयं चारुसौख्यं च दुःखम् । भूयो भुंक्त स्वसुखविमुखः सन् सवा तीव्रमोहादेकं तत्त्वं किमपि गुरुतः प्राप्य तिष्ठत्यमुष्मिन् ॥ १३७ ॥
श्लोकार्थ - हे जीव ! तू अकेला - असहाय ही अपने द्वारा किये हुए पुण्य-पा रूप कर्मों के सुख और दुःख रूप फलों का सम्बन्ध भोगने के लिये स्वयं जन्म गर्भवास में और मरण में प्रवेश करता है । दूसरा कोई कभी भी तेरे सुखदुःख रूप कर्मफल के पुत्र कलत्रादि भोगने में अथवा तुझं सुखी या दुखी करने में सहायक नहीं है । तेरे ये समूह अपनी जीवन रक्षा के लिये विटपेटक - शत्रुसमूहसदृश आकर तु मिल गये हैं ।
ही
उसीप्रकार से [ श्री टीकाकार मुनिराज ने भी जीव कं एकाकीपन दिखलाते हुए कहा है--]
( १३७ ) श्लोकार्थ --- यह जीव अकेला ही प्रवल दुष्कृत में जन्म और को प्राप्त करता है, तथा अकेला ही सदा तीव्र मोह के निमित्त से सूख से विमु सौख्य ! होता हुआ कर्मद्वन्द्व - पुण्य पापरूप दो प्रकार के कर्मोदय के फल रूप सुन्दर दुःख को पुनः पुनः भोगता है और अकेला ही गुरुदेव के प्रसाद में कोई एक अ तत्त्व-स्वात्मतत्त्व को प्राप्त करके उसीमें स्थित हो जाता है ।